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________________ चौथा स्तबक ९७ हैं कि तब वही क्षणस्थायी रूप (अपने स्थितिक्षण से अगले क्षण में) रूप को जन्म कैसे दे पाता है, क्योंकि यह नया रूप भी तो बुद्धि से भिन्न वस्तु ही टिप्पणी-क्षणिकवादियों की एक विलक्षण शब्दरचनाशैली है भावात्मक वस्तुओं का वर्णन दो निषेधों की सहायता से करना, उदाहरण के लिए 'गाय' को ‘अगाय से भिन्न' कहना । इसी शैली का अनुसरण करते हुए 'बुद्धिजनक' को 'अबुद्धिजनक से भिन्न' कहा जा सकता है। हरिभद्र 'अबुद्धिजनक से भिन्न' का अर्थ बुद्धिजनक से भिन्न' करते हैं और आपत्ति उठाते हैं कि रूप यदि (बुद्धिजनक होने के अतिरिक्त) रूपजनक भी है और रूप यदि अबुद्ध्यात्मक है तो रूप 'अबुद्धिजनक से भिन्न' कैसे हुआ । स हि व्यावृत्तिभेदेन रूपादिजनको ननु । उच्यते व्यवहारार्थमेकरूपोऽपि तत्त्वतः ॥३१९॥ कहा जा सकता है कि क्योंकि उक्त रूप उन उन वस्तुओं से भिन्न स्वभाव वाला है इसलिए उसे रूप आदि (अर्थात् रूप, बुद्धि आदि) कार्यों को जन्म देने वाला व्यवहारवश कहा जाता है यद्यपि तत्त्वतः वह एक-रूप (अर्थात् एक स्वभाव वाला) ही है । । टिप्पणी—प्रस्तुत क़ारिका में क्षणिकवादी अपनी उसी पूर्वोक्त मान्यता को दुहरा रहा है कि रूप बुद्धि-जनक तथा रूपजनक दोनों है, लेकिन यह कहकर कि रूप 'अबुद्धिजनक से भिन्न' तथा 'अरूपजनक से भिन्न' दोनों है; ('रूप उन उन वस्तुओं से भिन्न स्वभाव वाला है' यह कहने का अर्थ यही होता है)। उसका नया कहना यह है कि इन दो विशेषताओं वाला होने के बावजूद रूप एक ही स्वभाव वाला बन रहता है; इस नए कथन के विरुद्ध हरिभद्र की आपत्तियाँ ठीक अगली कारिका में मिलेंगी। अगन्धजननव्यावृत्त्याऽयं कस्मान्न गन्धकृत् । उच्यते तदभावाच्चेद् भावोऽन्यस्याः प्रसज्यते ॥३२०॥ लेकिन इस पर हम पूछते हैं कि क्योंकि यह रूप उन वस्तुओं से भिन्न स्वभाव वाला है जो गंध से भिन्न वस्तुओं को जन्म देती हैं वह गंध को जन्म देने वाला भी क्यों नहीं कहलाया जा सकता । उत्तर दिया जा सकता है कि ऐसा न होने का कारण यह वस्तुस्थिति है कि उक्त रूप उन वस्तुओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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