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शास्त्रवार्तासमुच्चय
उपादानादिभावेन न चैकस्यास्तु संगता ।
युक्त्या विचार्यमाणेह तदेनकत्वकल्पना ॥३१५॥
यह कल्पना भी विचार करने पर युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होती कि एक ही कारणसामग्री (अर्थात् इस सामग्री की अंगभूत वस्तुएँ) उपादान कारण आदि रूपों से अनेक प्रकार की भूमिकाएँ अदा कर पाती हैं ।
टिप्पणी-क्षणिकवादी की मान्यता यह है पूर्वक्षणकालीन रूप, नेत्र, प्रकाश तथा मनःस्थिति क्रमशः उत्तरक्षणकालीन रूप, नेत्र, प्रकाश तथा रूपप्रत्यक्ष के उपादानकारण है जब कि पूर्वक्षणकालीन रूप, नेत्र तथा प्रकाश उत्तरक्षणकालीन रूपप्रत्यक्ष के कारण है लेकिन उपादानकारण नहीं; इस उपादानभिन्न कोटि के कारण को पारिभाषिक शब्दावली में 'सहकारी कारण' (अथवा 'निमित्तकारण') कहा गया है।
रूपं येन स्वभावेन रूपोपादानकारणम् । निमित्तकारणं ज्ञाने तत् तेनान्येन वा भवेत् ॥३१६॥
क्योंकि प्रश्न उठता है कि रूप रूप का उपादानकारण जिस स्वभाव से है क्या वह ज्ञान का निमित्तकारण भी उसी स्वभाव से है या किसी अन्य स्वभाव से ।
यदि तेनैव विज्ञानं बोधरूपं न युज्यते ।
अथान्येन बलाद् रूपं द्विस्वभावं प्रसज्यते ॥३१७॥
यदि कहा जाए कि उसी स्वभाव से तब तो इस रूप के कार्यभूत ज्ञान को भी ज्ञानरूप नहीं होना चाहिए (उसी प्रकार जैसा कि इस रूप का कार्यभूत रूप ज्ञानरूप नहीं'); यदि कहा जाए कि किसी अन्य रूप से तब प्रस्तुत वादी यह मानने को विवश हो गया कि रूप दो स्वभावों वाला है ।
अबुद्धिजनकव्यावृत्त्या चेद् बुद्धिप्रसाधकः । : रूपक्षणो ह्यबुद्धित्वात् कथं रूपस्य साधकः ॥३१८॥
कहा जा सकता है कि क्षणस्थायी रूप (अपने स्थिति क्षण से अगले क्षण में) बुद्धि को जन्म इसलिए दे पाता है कि वह उन वस्तुओं से भिन्न स्वभाव वाला है जो बुद्धि से भिन्न वस्तुओं को जन्म देती हैं, लेकिन इस पर हम पूछते १. क का पाठ : "भोगेन ।
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