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तानशेषान् प्रतीत्येह भवदेकं कथं भवेत् । एकस्वभावमेकं यत् तत्तु नानेकभावतः ॥३०७॥
कारणसामग्री की अंगभूत सभी वस्तुओं पर निर्भर रहते हुए अस्तित्व में आने वाला कार्य एक कैसे कहा जा सकता है; क्योंकि एक वस्तु वह होती है जिसमें एकस्वभावता रहती है जबकि अनेक वस्तुओं से उत्पन्न होने वाली वस्तु में एकस्वभावता रह नहीं सकती ।
शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
यतो भिन्नस्वभावत्वे सति तेषामनेकता ।
तावत् सामर्थ्यजत्वे च कुतस्तस्यैकरूपता ॥ ३०८ ॥
बात यह है कि कारणसामग्री की अंगभूत वस्तुएँ अनेक इसीलिए हैं कि उनके स्वभाव परस्पर भिन्न हैं; ऐसी दशा में इन्हीं ( अनेक) वस्तुओं की सामर्थ्य के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली वस्तु, एक रूप कैसे हो सकती है ? यज्जायते प्रतीत्यैकसामर्थ्यं नान्यतो हि तत् । तयोरभिन्नतापत्तेर्भेदे भेदस्तयोरपि ॥ ३०९ ॥
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जो कार्य एक वस्तु की सामर्थ्य के फलस्वरूप उत्पन्न होता है वह किसी दूसरी वस्तु से भी उत्पन्न हो यह संभव नहीं; क्योंकि उस दशा में उक्त दो वस्तुएँ परस्पर अभिन्न हो जाएगी । और यदि ये वस्तुएँ परस्पर भिन्न रहेंगी तो यह कार्य भी दो रूपों वाला हो जाएगा ( अर्थात् तब ये वस्तुएँ एक कार्य को नहीं बल्कि दो परस्परभिन्न कार्यों को उत्पन्न करेंगी) ।
न प्रतीत्यैकसामर्थ्यं जायते तत्र किञ्चन । सर्वसामर्थ्यभूतिस्वभावत्वात् तस्य चेन्न तत् ॥३१०॥
कहा जा सकता है कि कोई भी कार्य किसी एक वस्तु की सामर्थ्य के फलस्वरूप उत्पन्न नहीं होता, और वह इसलिए कि यह इस कार्य का स्वभाव है कि वह अपनी कारणसामग्री की अंगभूत सभी वस्तुओं की सामर्थ्य के फलस्वरूप उत्पन्न हो । इस पर हमारा उत्तर है :
प्रत्येकं तस्य तद्भावे युक्ता ह्युक्तस्वभावता । न हि तत्सर्वसामर्थ्यं तत्प्रत्येकत्ववर्जितम् ॥३११॥
१. ख का पाठ : यत्सर्व' ।
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