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________________ चौथा स्तबक (१) रूप—पारिभाषिक नाम 'आलम्बन-प्रत्यय'; (२) नेत्र-इन्द्रिय-~-पारिभाषिक नाम 'अधिपति-प्रत्यय'; (३) प्रकाश आदि—पारिभाषिक नाम 'सहकारि प्रत्यय'; . (४) ज्ञाता की तत्कालीन मनःस्थिति—पारिभाषिक नाम 'समनन्तर-प्रत्यय'; साथ ही यह ध्यान रहे कि क्षणिकवादी की मान्यतानुसार पूर्वक्षणकालीन रूप नेत्र तथा प्रकाश उत्तरक्षणकालीन ज्ञान के ही कारण नहीं अपितु क्रमश: उत्तरक्षणकालीन रूप, नेत्र तथा प्रकाश के भी कारण बनते हैं । इस संबंध में हरिभद्र की मुख्य आपत्तियाँ दो हैं तथा निम्नलिखित-(१) जब रूप, नेत्र, प्रकाश तथा मनःस्थिति परस्परभिन्न स्वभाव वाले हैं तब वे एक ही कार्य को जन्म देने में कैसे सफल होते हैं ? (२) जब रूप, नेत्र तथा प्रकाश ज्ञान के कारण हैं तब वे क्रमशः रूप, नेत्र तथा प्रकाश के भी कारण कैसे ? सर्वेषां बुद्धिजनने यदि सामर्थ्यमिष्यते । रू पादीनां ततः कार्यभेदस्तेभ्यो न युज्यते ॥३०४॥ क्योंकि यदि उक्त कारणसामग्री की अंगभूत रूप आदि प्रत्येक वस्तु बुद्धि रूप कार्य को जन्म देने में समर्थ है तब यह मानना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता कि रूप आदि वस्तुएँ किन्हीं अन्य कार्यों को भी (अर्थात् बुद्धि से अतिरिक्त किन्हीं कार्यों को भी) जन्म देती हैं । रूपालोकादिकं कार्यमनेकं चोपजायते ।। तेभ्यस्तावद्भ्य एवेति तदेतच्चिन्त्यतां कथम् ॥३०५॥ ऐसी दशा में सोचना चाहिए कि ठीक उन्हीं (रूप, आलोक आदि) वस्तुओं से रूप आलोक आदि एकाधिक कार्य का (अर्थात् एक ओर रूप आलोक आदि का तथा दूसरी ओर बुद्धि का) जन्म कैसे होता है । प्रभूतानां च नैकत्र साध्वी सामर्थ्यकल्पना । तेषां प्रभूतभावेन तदेकत्वविरोधतः ॥३०६॥ फिर यह कल्पना भी उचित नहीं जान पड़ती कि अनेक वस्तुएँ एक ही कार्य को जन्म देने में समर्थ है, क्योंकि इन अनेक वस्तुओं में अनेकता रहती है जब कि इस अनेकता का प्रस्तुत कार्यगत एकता के साथ विरोध है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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