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चौथा स्तबक
भावरूप वस्तु का कारण नहीं होती और न यह भावरूप वस्तु इस असत्ताशील वस्तु का रूपान्तर है ।
टिप्पणी- पिछली चर्चा के प्रसंग में हम देख चुके हैं कि वादी स्वयं अपने मत को यह कहकर प्रस्तुत नहीं करना चाहेगा कि एक भावरूप वस्तु अभावरूप बन जाती है; इस कारिका द्वारा जाना जा सकता है कि वर्तमान चर्चा में भी प्रस्तुत वादी स्वयं अपने मत को यह कहकर प्रस्तुत नहीं करना चाहेगा कि एक अभावरूप वस्तु भावरूप बन जाती है।
वस्तुनोऽनन्तरं सत्ता कस्यचिद् या नियोगतः । सा तत्फलं मता सैव भावोत्पत्तिस्तदात्मिका ॥ २९७ ॥
एक वस्तु के अनन्तर जो एक दूसरी वस्तु नियमतः अस्तित्व में आया करती है उस दूसरी वस्तु का अस्तित्व उस वस्तु का कार्य कहलाता है; इस दूसरी वस्तु का यह अस्तित्व में आना ही इस दूसरी वस्तु की उत्पत्ति कहलाता है और यह उत्पत्ति इस वस्तु के ही स्वरूप वाली है (अर्थात् यह उत्पत्ति इस वस्तु से पृथक् कोई स्वतंत्र तत्त्व नहीं) ।
असदुत्पत्तिरप्यस्य प्रागसत्त्वात् प्रकीर्तिता ।
नासतः सत्त्वयोगेन कारणात् कार्यभावतः ॥२९८॥
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उक्त (भावरूप) वस्तु की उत्पत्ति को एक अ-सत्ताशील वस्तु की उत्पत्ति भी कहा जाता है और वह इसलिए कि यह वस्तु पहले अस्तित्व में न थी - न कि इसलिए कि प्रस्तुत स्थल में एक अ-सत्ताशील (अभावरूप) वस्तु एक भावरूप वस्तु बन गई है; हमारी इस मान्यता की आधारभूत वस्तुस्थिति यह है कि एक ( भाव - रूप) कार्य अपने ( भावरूप) कारण से उत्पन्न होता है ।"
प्रतिक्षिप्तं च तद् हेतोः प्राप्नोति फलतां विना । असतो भावकर्तृत्वं तदवस्थान्तरं च सः ॥ २९९॥
शान्तरक्षित के उक्त वक्तव्य का खण्डन इसलिए हो गया कि जब तक कार्य को कारण का रूपान्तर न माना जाएगा तब तक यह मान्यता गले पड़ेगी ही कि एक अ-सत्ताशील वस्तु एक भावरूप वस्तु का कारण बन गई तथा यह कि उक्त भावरूप वस्तु अ- सत्ताशील वस्तु का रूपान्तर है ।
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