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________________ ९० का कारण अमुक वस्तुविशेष है । टिप्पणी — हरिभद्र की आपत्ति है कि प्रस्तुत वादी का मत स्वीकार करने पर इस उस वस्तु को इस उस वस्तु का कारण नहीं माना जा सकेगा बल्कि यही कहना पड़ेगा कि पूर्वक्षणकालीन समूचा विश्व उत्तरक्षणकालीन समूचे विश्व का कारण है । अपने बचाव में प्रस्तुत वादी दो बातें कह सकता है :(१) यह कि एक पूर्वक्षणकालीन वस्तुविशेष एक उत्तरक्षणकालीन वस्तुविशेष का कारण बन सकती है, बशर्ते कि ये दोनों वस्तुएँ एक ही स्थान पर अवस्थित हों; (२) यह कि एक पूर्वक्षणकालीन वस्तुविशेष एक उत्तरक्षणकालीन वस्तुविशेष का कारण बन सकती है बशर्ते कि किसी प्रकारविशेष से यह दूसरी वस्तु इस पहली वस्तु का रूपान्तरण है । इनमें से पहले बचाव के विरुद्ध हरिभद्र का कहना है कि प्रस्तुत वादी 'स्थान' का स्वरूपनिरूपण करने में असमर्थ है । (उदाहरण के लिए, उसके मतानुसार कोई दो स्थान अर्थात् किन्हीं दो घटनाओं के स्थिति स्थान एक दूसरे से अभिन्न नहीं हो सकते), दूसरे के विरुद्ध यह कि उसकी संगति क्षणिकवाद के साथ नहीं बैठती । शास्त्रवार्त्तासमुच्चय योऽप्येकस्यान्यतो भावः सन्ताने दृश्यतेऽन्यदा । तत एव विदेशस्थात् सोऽपि यत् तन्न बाधकम् ॥२९५॥ और जो कभी कभी दीखता है कि एक कार्यपरंपरा का घटकभूत कोई कार्य अपने नियत कारण से अतिरिक्त कारण से उत्पन्न हो रहा है वहाँ भी वस्तुतः उक्त कार्य अपने उस नियत कारण से ही उत्पन्न होता है भले ही वह कारण दूर स्थान पर वर्तमान क्यों न हो; ( उदाहरण के लिए एक धूमरेखा का अग्नि निकटवर्ती भाग अग्नि से उत्पन्न होता दीखते हुए भी उसका अग्निदूरवर्ती भाग धूम से ही उत्पन्न होता दीखता है, लेकिन वस्तुतः धूमरेखा का यह अग्निदूरवर्ती भाग भी अग्नि द्वारा ही उत्पन्न हुआ होता है) । ऐसी दशा में उक्त वस्तुस्थिति भी हमारे पूर्वोक्त कथन का बाधक नहीं (अर्थात् इस कथन का कि एक कार्यविशेष का जन्म एक नियत कारणविशेष से ही होता है । एतेनैतत् प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं सूक्ष्मबुद्धिना । नासतो भावकर्तृत्वं तदवस्थान्तरं न सः ॥ २९६ ॥ उक्त तर्कसरणि से हमने सूक्ष्मबुद्धि (शान्तरक्षित) के निम्नलिखित वक्तव्य का भी खंडन कर दिया " एक असत्ताशील (अर्थात् अभावरूप) वस्तु एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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