SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौथा स्तबक टिप्पणी-यहाँ 'महामति' से हरिभद्र को कोई ग्रंथकारविशेष अभीष्ट होना चाहिए । सर्वथैव तथाभाविवस्तुभावादृते न यत् ।। कारणानन्तरं कार्यं द्राग् नभस्तस्ततो न तत् ॥२९१॥ . "जो वादी रूपान्तरणशील वस्तुओं के अस्तित्व से सर्वथा इनकार करता है उसके मतानुसार एक कार्य का अपने कारण के अनन्तर उत्पन्न होना उसी प्रकार असंभव है जैसे कि उसका आकाश से टपकना, और इसका अर्थ यह हुआ कि इस वादी के मतानुसार कोई कार्य उत्पन्न ही नहीं होता । तस्यैव तत्स्वभावत्वकल्पनासम्पदप्यलम् । न युक्ता युक्तिवैकल्यराहुणा जन्मपीडनात् ॥२९२॥ 'अपने कारण के अनन्तर उत्पन्न होना एक कार्य का स्वभाव ही है' इस प्रकार की कल्पना गढ़ना भी सर्वथा अयुक्तिसंगत है और वह इसलिए कि इस कल्पना का जन्म युक्तिशून्यता रूपी दुष्ट ग्रह से पीड़ित घड़ी में हुआ है। तदनन्तरभावित्वमात्रतस्तव्यवस्थितेः । विश्वस्य विश्वकार्यत्वं स्यात् तद्भावाविशेषतः ॥२९३॥ यदि एक वस्तु को एक दूसरी वस्तु का कार्य केवल इस आधार पर कहा जाए कि यह वस्तु इस दूसरी वस्तु के अनन्तर उत्पन्न हुई है तब तो (उत्तरक्षणकालीन) समूचे विश्व को (पूर्वक्षणकालीन) समूचे विश्व का कार्य कहा जा सकेगा; क्योंकि यह भी एक वस्तु (=पूर्वक्षणकालीन विश्व) के अनन्तर एक दूसरी वस्तु (= उत्तरक्षणकालीन विश्व) के उत्पन्न होने का स्थल तो है ही । अभिन्नदेशतादीनामसिद्धत्वादनन्वयात् । सर्वेषामविशिष्टत्वान्न तन्नियमहेतुता ॥२९४॥ क्योंकि प्रस्तुत वादी की यह मान्यता प्रमाणसिद्ध नहीं कि कारण तथा कार्य के बीच एकदेशता आदि रूप संबंध हुआ करते हैं । और क्योंकि उसके मतानुसार कार्य-कारण का रूपान्तर नहीं उसे मानना ही पड़ेगा कि उत्तरक्षणकालीन विश्व की सभी वस्तुओं का पूर्वक्षणकालीन विश्व की सभी वस्तुओं के साथ एक सा सम्बन्ध है; और ऐसी दशा में उसके लिए ऐसे किसी नियम का निर्धारण करना संभव न होगा जिसकी सहायता से हम जान सकें कि अमुक वस्तुविशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy