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शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
होने पर कार्य उत्पन्न हो जब कि यहाँ वह कह रहा है कि कारण का नाश एक काल्पनिक घटना है वास्तविक घटना नहीं) ।
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न धर्मी' कल्पितो धर्मधर्मिभावस्तु कल्पितः । पूर्वो हेतुर्निरंश: स उत्तरः फलमुच्यते ॥ २८८ ॥
कहा जा सकता है कि वहाँ धर्मी को नहीं अपितु धर्म- धर्मिभाव को काल्पनिक बतलाया जा रहा है जब कि पूर्वक्षण में रहने वाला अंशहीन धर्मी कारण कहलाता है तथा उत्तर क्षण में रहने वाला अंशहीन धर्मी कार्य । इस पर हमारा उत्तर है ।
टिप्पणी—यहाँ धर्मी को 'अंशहीन' कहने का अर्थ यह है कि यह धर्मी केवल धर्मी है किन्हीं धर्मों को धारण करने वाला धर्मी नहीं ।
पूर्वस्यैव तथाभावाभावे हन्तोत्तरं कुतः ।
तस्यैव तु तथाभावेऽसतः सत्त्वमदो न सत् ॥२८९॥
पूर्वक्षणकालीन धर्मी का ही रूपान्तरण हुए बिना उत्तरक्षणकालीन धर्मी अस्तित्व में कैसे आएगा ? और यदि यह मान लिया गया कि पूर्वक्षणकालीन धर्मी के रूपान्तरण के फलस्वरूप उत्तरक्षणकालीन धर्मी अस्तित्व में आता है तब यह कहना उचित नहीं कि कार्योत्पत्ति के समय एक सर्वथा असत्ताशील वस्तु अस्तित्व में आया करती है ।
टिप्पणी- एक कार्यभूत वस्तु अपनी कारणभूत वस्तु का रूपान्तरण हुआ करती है यह मान्यता स्वयं हरिभद्र को तत्त्वतः स्वीकार्य है । इस मान्यता को ठीक क्या रूप देना उन्हें अभीष्ट है यह हम सातवें स्तबक में जानेंगे ।
तं प्रतीत्य तदुत्पाद इति तुच्छमिदं वचः । अतिप्रसंगतश्चैव तथा चाह महामतिः ॥२९०॥
प्रस्तुतं वादी का यह कहना भी (पूर्वोक्त कारण से) बेकार की बात है कि कार्य का जन्म कारण पर निर्भर रहते हुए हुआ करता है; दूसरे, ऐसा कहना (कुछ नए) अवाञ्छनीय निष्कर्षों को ला उपस्थित करता है (उदाहरण के लिए, तब तो एक कारणविशेष अपने उत्तरक्षणवर्ती समूचे विश्व का कारण होना चाहिए किसी कार्यविशेष का नहीं) । जैसा कि महामति का कहना है ।
१. क का माठ : धर्मः ।
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