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________________ चौथा स्तबक ८७ हम पूछते हैं कि कारण का नाश कारण से तथा कार्य की उत्पत्ति कार्य से भिन्न है अथवा अभिन्न । यदि वे परस्पर भिन्न हैं तब इस नाश को कारण का नाश कैसे कहा जाए तथा इस उत्पत्ति को कार्य की उत्पत्ति कैसे कहा जाए: और यदि वे परस्पर अभिन्न है तब उक्त मान्यता का (अर्थात् इस मान्यता का कि कारण का नाश तथा कार्य की उत्पत्ति दो परस्पर-समकालीन घटनाएँ है) अर्थ कारण तथा कार्य को समकालीन मानना हुआ । न हेतुफलभावश्च तस्यां सत्यां हि युज्यते । तन्निबन्धनभावस्य द्वयोरपि वियोगतः ॥२८६॥ लेकिन जब दो वस्तुएँ परस्पर समकालीन हैं तो उनके बीच कार्यकारण भाव मानना युक्तिसंगत नहीं; क्योंकि ऐसी दो वस्तुएँ कार्यकारणभाव की नियामकभूत विशेषताओं से (उदाहरण के लिए, एक की उपस्थिति में दूसरी का उपस्थित होना तथा एक की अनुपस्थिति में दूसरी का अनुपस्थित होना) शून्य हुआ करती हैं । टिप्पणी-अभी कारिका २८३ में हरिभद्र ने क्षणिकवादी के विरुद्ध आपत्ति उठाते समय कहा था कि कारण को कार्य का समकालीन होना चाहिए, जब कि प्रस्तुत कारिका में वे कह रहे हैं कि दो समकालीन वस्तुओं के बीच कार्यकारण भाव संभव नहीं । यहाँ समझना यह है कि हरिभद्र के मतानुसार कारण (अर्थात् उपादानकारण) अपने कार्य की उत्पत्ति के पूर्व भी उपस्थित रहता है तथा इस उत्पत्ति के समय भी-अत: पिछली कारिका में हरिभद्र की आपत्ति का आशय यह था कि क्षणिकवादी के मतानुसार कारण कार्य की उत्पत्ति के समय उपस्थित नहीं जब कि उनकी प्रस्तुत आपत्ति का आशय यह होना चाहिए कि उसके मतानुसार कारण कार्य की उत्पत्ति के पूर्व उपस्थित नहीं । कल्पितश्चेदयं धर्मधर्मभावो हि भावतः । न हेतुफलभावः स्यात् सर्वथा तदभावतः ॥२८७॥ कहा जा सकता है कि कारण तथा नाश के बीच और कार्य तथा उत्पत्ति के बीच रहने वाला धर्म-धर्मिभाव वस्तुतः काल्पनिक है; लेकिन इस पर हमारा कहना है कि धर्म-धर्मिभाव को असत्ताशील (क्योंकि काल्पनिक) मानने का अर्थ होगा कार्यकारणभाव के अस्तित्व से ही इनकार करना (यह इसलिए कि प्रस्तुत वादी के मतानुसार एक कारण की कारणता ही इस बात में हैं कि उसका नाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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