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________________ शास्त्रवार्तासमुच्चय तर्क देते हैं कि क्योंकि एक सर्वथा असत्ताशील वस्तु किसी दूसरी वस्तु की .. 'विशिष्ट अवधि' नहीं बन सकती इसलिए उक्त कार्य अपने जन्म के पूर्व भी सर्वथा असत्ताशील नहीं । साधकत्वे तु सर्वस्य ततो भावः प्रसज्यते । कारणाश्रयणेऽप्येवं न तत्सत्त्वं तदन्यवत् ॥२८२॥ यदि कहा जाए कि कोई वस्तु एक विशिष्ट अवधिवाली हुए बिना भी एक दूसरी वस्तु को अस्तित्व में ला सकती है तब तो यह वस्तु दूसरी सभी वस्तुओं को अस्तित्व में लाने वाली होनी चाहिए; और ऐसी दशा में एक कारणभूत वस्तु की उपस्थिति में भी इस कारण की कार्यभूत वस्तु का जन्म नहीं होना चाहिए उसी प्रकार जैसे कि उस स्थिति में अन्य वस्तुओं का जन्म नहीं हुआ करता । किञ्च तत् कारणं कार्यभूतिकालें न विद्यते । ततो न जनकं तस्य तदाऽसत्त्वात् परं यथा ॥२८३॥ दूसरे, क्योंकि प्रस्तुत वादी की मान्यतानुसार एक कारण अपने कार्य के जन्म के समय वर्तमान नहीं रहता हम अनुमान दे सकते हैं : "यह कारण इस कार्य को उत्पन्न करने वाला नहीं, क्योंकि यह कारण इस कार्य के जन्म के समय वर्तमान नहीं-उसी प्रकार जैसे कि दूसरा कोई कारण ।" अनन्तरं च तद्भावस्तत्त्वादेव निरर्थकः । • समं च हेतुफलयो शोत्पादावसङ्गतौ ॥२८४॥ कहा जा सकता है कि एक कारण अपने कार्य के अनन्तर (=ठीक पहले) तो उपस्थित रहता है, लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि इस अनन्तरता के आधार पर ही तो (अर्थात् इस आधार पर ही तो कि कारण तथा कार्य आगे-पीछे आते हैं) हम यह कह रहे है कि जहाँ तक उक्त कार्य की उत्पत्ति का संबन्ध है उक्त कारण का कोई उपयोग नहीं । दूसरे, एक कारण का नाश तथा इस कारण के कार्य की उत्पत्ति इन दो घटनाओं को समकालीन मानना युक्तिसंगत नहीं (जब कि क्षणिकवादी उन्हें समकालीन मानता है) । स्तस्तौ भिन्नावभिन्नौ वा ताभ्यां भेदे तयोः कुतः । नाशोत्पादावभेदे तु तयोः तुल्यकालता ॥२८५॥ १. क का पाठ : तदा सत्त्वात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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