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प्रस्तावना प्रस्तुत ग्रंथ प्रख्यात जैन मनीषि आचार्य हरिभद्रसूरि (समय : आठवींनवीं शताब्दी विक्रमी) की दार्शनिक कृतियों में से एक है । इस ग्रंथ की स्चना के पीछे हरिभद्र का उद्देश्य रहा था अपने समय में प्रचलित कतिपय दार्शनिक सम्प्रदायों के कतिपय मन्तव्यों की आलोचनात्मक समीक्षा करना । यों तो प्राचीन भारत का प्रत्येक दार्शनिक कृतिकार सदैव ही किसी प्रश्नविशेष पर अपने मन्तव्य को अपने पाठकों के सामने इस प्रकार से उपस्थित करता था कि उसके समय में प्रचलित सभी प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदायों के एतत्संबंधी मन्तव्यों की आलोचनात्मक समीक्षा का समावेश उसकी कृति में हो जाए, लेकिन प्राचीन भारत की कुछ दार्शनिक कृतियों का उद्देश्य विरोधी सम्प्रदायों के मन्तव्यों की आलोचनात्मक समीक्षा के अतिरिक्त प्राय: कुछ न था। इस कोटिविशेष की एक बौद्ध कृति है शान्तरक्षित का कारिकाबद्व तत्त्वसंग्रह (जिस पर कमलशील ने 'पंजिका' नामवाली गद्यात्मक टीका लिखी है); और इसी कोटि की एक जैन कृति है हरिभद्र का कारिकाबद्ध शास्त्रवार्तासमुच्चय (जिस पर स्वयं उन्होंने 'दिक्प्रदा' नामवाली गद्यात्मक टीका लिखी है तथा उपाध्याय यशोविजय ने 'स्याद्वादकल्पलता' नामवाली) । निःसन्देह आकार की दृष्टि से तत्त्वसंग्रह तथा पंजिका शास्त्रवार्तासमच्चय, 'दिक्प्रदा' तथा 'स्याद्वादकल्पलता'की तुलना में विशालतर ठहरेंगे, लेकिन ध्यान देने योग्य बात इन दो ग्रंथों का शैली-साम्य है। इन दो ग्रंथों के बीच छोटा सा-लेकिन मारकेका—एक अन्तर और भी है । अपने प्रतिद्वन्द्वियों के विरुद्ध शान्तरक्षित का अभियान समझौताविहीन है, लेकिन हरिभद्र अपने किसी भी प्रतिद्वन्द्वी के संबंध में यह कहना नहीं भूले हैं कि उसका मूल मन्तव्य भी उन्हें स्वीकार है, बशर्त कि उसे अमुक अर्थविशेष पहना दिया जाए । यह सच है कि अपने प्रतिद्वन्द्वियों के मूल मन्तव्यों को जो अर्थविशेष पहनाना हरिभद्र को अभीष्ट है वह स्वयं इन प्रतिद्वन्द्वियों को कदाचित् ही अभीष्ट हो, लेकिन अपने विरोधियों के मत का स्वागत करने की दिशा में प्रदर्शित की गई हरिभद्र की इतनी आतुरता भी भारतीय दर्शन के इतिहास में
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