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________________ ८४ शास्त्रवार्तासमुच्चय जन्म से पूर्व सर्वथा असत्ताशील हुआ करता है—अर्थात् उस मान्यता का जिसका पारिभाषिक नाम 'असत्कार्यवाद' है। हरिभद्र की समझ है कि 'अभाव से भाव की उत्पत्ति होती है' यह कथन भी उक्त मान्यता को ही व्यक्त करने का एक प्रकारविशेष है, और इस संबन्ध में उनका मुख्य कहना यह है कि किसी कार्य को जन्म देने की क्षमता एक सर्वथा अभाव रूप वस्तु में नहीं रह सकती। [हरिभद्र का अपना मत यह है कि जगत् की वे वे वस्तुएँ जो उन उन कार्यों को जन्म देने की क्षमता रखती है, भावरूप तथा अभावरूप दोनों हैं ।] असदुत्पद्यते तद्धि विद्यते यस्य कारणम् । विशिष्टशक्तिमत् तच्च ततस्तत्सत्त्वसंस्थितिः ॥२७७॥ कहा जा सकता है : "अस्तित्व में न रही हुई वही वस्तु अस्तित्व में आया करती है जिसका कारण उपस्थित हो, और क्योंकि यह कारण एक विशिष्ट क्षमता वाला है (अर्थात् उक्त वस्तु को जन्म देने की क्षमता वाला है) इसलिये उसके द्वारा उक्त वस्तु का नियमतः अस्तित्व में लाया जाना संभव बनता है"। इस पर हमारा उत्तर है टिप्पणी—प्रस्तुत वादी का आशय यह है कि यद्यपि अपनी उत्पत्ति के ठीक पूर्व अपने उत्पत्ति-स्थल पर एक कार्य उसी प्रकार अनुपस्थित रहता है जैसे अन्य कोई वस्तु, लेकिन क्योंकि उस समय उस स्थल पर इस कार्य का कारण उपस्थित रहता है इसलिए यह कार्य अस्तित्व में आ पाता है । अत्यन्तासति सर्वस्मिन् कारणस्य न युक्तितः । विशिष्टशक्तिमत्त्वं हि कल्प्यमानं विराजते ॥२७८॥ - जो वस्तु अस्तित्व से सर्वथा शून्य है उसके सम्बन्ध में यह कल्पना करना युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता कि कोई कारणविशेष एक विशिष्ट क्षमता वाला है (अर्थात् यह कि कोई कारणविशेष उस वस्तु को जन्म देने की क्षमता वाला है) । तत्सत्त्वसाधकं तन्न तदेव हि तदा न यत् । अत एवेदमिच्छन्तु न वै तस्येत्ययोगतः ॥२७९॥ कहा जा सकता है कि उक्त वस्तु का कारण उसे अस्तित्व में लाने १. क का पाठ : न चैतस्ये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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