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चौथा स्तबक
नहीं (अर्थात् यह विकल्प कि यह अभाव उक्त भावरूप वस्तु से भिन्न है अथवा अभिन्न) ।
तदेव न भवत्येतद् विरुद्धमिव लक्ष्यते ।
तदेव वस्तुसंस्पर्शाद् भवनप्रतिषेधतः ॥२७४॥
फिर (धर्मकीर्ति का) यह कहना कि (नाश-स्थल में) वही (अर्थात् एक भूतपूर्व वस्तु ही) अस्तित्व में रहना समाप्त कर देती है एक अन्तविरोध-पूर्ण सा वक्तव्य है, क्योंकि 'वहीं' शब्द के प्रयोग से लगता है कि इस शब्द द्वारा सूचित पदार्थ वस्तुरूप (अर्थात् अस्तित्वशील रूप है) जब कि दूसरी ओर इसी पदार्थ के संबन्ध में कहा जा रहा है कि वह अस्तित्व में नहीं रहता ।
सतोऽसत्त्वं यतश्चैवं सर्वथा नोपपद्यते ।।
भावो नाभावमेतीह ततश्चैतद् व्यवस्थितम् ॥२७५॥
इस प्रकार जब यह सिद्ध हो गया कि अस्तित्व में रहने वाली वस्तु का अस्तित्व में न रहना किसी भी प्रकार संभव नहीं तब यह मत भी स्थिर हो गया कि एक भावरूप वस्तु अभावरूप नहीं बनती ।
(३) 'अभाव भाव बन जाता है'
इस मत का खंडन असतः सत्त्वयोगे तु तत्तथाशक्तियोगतः ।। नासत्त्वं तदभावे तु न तत्सत्त्वं तदन्यवत् ॥२७६॥
एक अभाव रूप वस्तु से एक भाव रूप वस्तु की उत्पत्ति संभव मानने पर भी एक द्विविधा उठ खड़ी होती है, क्योंकि यदि. माना जाए कि उक्त अभावरूप वस्तु उक्त भावरूप वस्तु को जन्म देने की क्षमता से सम्पन्न है तब तो वह अभावरूप वस्तु अभावरूप नहीं रही (यह इसलिए कि किसी क्षमता से सम्पन्न होना एक भावरूप वस्तु के लिए ही संभव है), और यदि माना जाए कि उक्त अभावरूप वस्तु उक्त भावरूप वस्तु को जन्म देने की क्षमता से शून्य है तब इस स्थल पर इस भावरूप वस्तु का अस्तित्व उसी प्रकार असंभव होना चाहिए जैसे कि किसी अन्य वस्तु का ।
टिप्पणी-जैसा कि पहले कहा जा चुका है प्रस्तुत कारिका से हरिभद्र क्षणिकवादी की इस मान्यता का खंडन प्रारम्भ करते हैं कि एक कार्य अपने
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