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चौथा स्तबक
अभाव रूप वस्तु का जन्म होता है इस मान्यता से हरिभद्र को तत्त्वतः इनकार नहीं, लेकिन वे प्रस्तुत वादी की इस अतिरिक्त मान्यता का खंडन कर रहे हैं कि उक्त अभावरूप वस्तु उक्त भावरूप वस्तु के सर्वथा विनाश का सूचक है । जैसा कि हम अभी देखेंगे, अपनी अभीष्ट मान्यता को प्रस्तुत वादी स्वयं यह कह कर नहीं उपस्थित करता कि एक भावरूप वस्तु अपने स्थिति-क्षण से अगले क्षण में अभावरूप (अथवा सर्वथा अभाव रूप) बन जाती है; उसका तो केवल इतना कहना है कि एक भावरूप वस्तु अपने अपने स्थितिक्षण से अगले क्षण में सर्वथा विनष्ट हो जाती है । लेकिन हरिभद्र इन दोनों कथनों को समानार्थक मानते हैं ।
नोत्पत्त्यादेस्तयोरैक्यं तुच्छेतरविशेषतः ।
निवृत्तिभेदतश्चैव बुद्धिभेदाच्च भाव्यताम् ॥ २६८ ॥
यद्यपि उक्त भावरूप तथा अभावरूप दोनों प्रकार की वस्तुओं की उत्पत्ति आदि होती है लेकिन इतने से ही वे सर्वथा एक सी नहीं बन जाती, और वह इसलिए कि इनमें से एक भावरूप है तथा दूसरी अभावरूप, इसलिए कि इनमें से एक का अभाव एक प्रकार का है तथा दूसरी का दूसरे प्रकार का (अर्थात् पहली का अभाव अभावरूप है तथा दूसरी का भावरूप), इसलिए कि इनमें से एक की प्रतीति एक रूप से होती है तथा दूसरी की दूसरे रूप से ।
एतेनैतत् प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं न्यायमानिना ।
न तत्र किञ्चिद् भवति न भवत्येव केवलम् ॥२६९॥
उक्त तर्कसरणि से हमने न्यायाभिमानी (धर्मकीर्ति) के निम्नलिखित वक्तव्य का भी खंडन कर दिया : " एक भावरूप वस्तु के नाशके समय नष्ट हुई वस्तु के स्थान पर कोई नई वस्तु अस्तित्व में नहीं आती अपितु होता केवल इतना है कि वही भावरूप वस्तु अस्तित्व में बनी नहीं रहती ।"
भावे ह्येष विकल्पः स्याद् विधेर्वस्त्वनुरोधतः ।
न भावो भवतीत्युक्तमभावो भवतीत्यपि ॥२७०॥
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इस प्रकार का विकल्प ( कि अमुक वस्तु अमुक दूसरी वस्तु से भिन्न
है या अभिन्न ) भावरूप वस्तुओं के सम्बन्ध में ही उठना चाहिए, और वह इसलिए कि इन उन मान्यताओं का प्रतिपादन वस्तुओं के (अर्थात् भावरूप वस्तुओं के संबंध में ही संभव है । अतः जब कहीं यह कहा जाता है कि
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