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शास्त्रवार्तासमुच्चय टिप्पणी-हरिभद्र अब तक इस प्रश्न की चर्चा कर रहे थे कि क्या कोई वस्तु अपने जन्म के अगले ही क्षण में सर्वथा विनष्ट हो जाती हैं; अब वे इस प्रश्न की चर्चा प्रारंभ करते हैं कि क्या कोई वस्तु कभी सर्वथा विनष्ट होती है । [हरिभद्र की अपनी समझ है कि कोई वस्तु न सर्वथा-अर्थात् नए सिरे से-उत्पन्न होती है न सर्वथा-अर्थात् जड़ - मूल से विनष्ट होती है ।]
न तद्गतेर्गतिस्तस्य प्रतिबन्धविवेकतः ।। तस्यैवाभवनत्वे तु भावाविच्छेदतोऽन्वयः ॥२६६॥
यह भी नहीं कहा जा सकता कि घड़े के टुकड़ों का ज्ञान घड़े के अभाव के ज्ञान का कारण बनता है क्योंकि घड़े के टुकड़ों तथा घड़े के अभाव के बीच किसी प्रकार का व्याप्ति-सम्बन्ध नहीं (अर्थात् उनके बीच अनुमानअनुमेयभाव नहीं) । कहा जाए कि घड़े के टुकड़ों का होना ही घड़े का न होना है तो यह मान लिया गया कि प्रस्तुत स्थल में भावरूप वस्तुओं की परंपरा का विच्छेद नहीं हुआ-जिसका अर्थ यह हुआ कि यहाँ एक भूतपूर्व भावरूप वस्तु ने ही एक नया रूप धारण कर लिया ।
टिप्पणी-हरिभद्र की अपनी मान्यतानुसार जगत् की प्रत्येक वस्तु किसी स्थायी तत्त्व की एक अवस्थाविशेष मात्र है; वस्तुस्वरूप के स्थायिता के पहलू को जैनदर्शन की पारिभाषिक शब्दावली में 'अन्वय', 'सामान्य', 'द्रव्य' आदि कहा गया है तथा वस्तुस्वरूप के अवस्थायिता के पहलू को 'व्यतिरेक', 'विशेष', 'पर्याय' आदि । प्रस्तुत कारिका में आए 'अन्वय' शब्द का अर्थ इसी पृष्ठभूमि में समझना चाहिए ।
तस्मादवश्यमेष्टव्यं तदूर्ध्वं तुच्छमेव तत् । ज्ञेयं सद् ज्ञायते' ह्येतदपरेणापि युक्तिमत् ॥२६७॥
अतः यह मानना ही चाहिए कि एक भावरूप वस्तु के स्थितिक्षण के अनन्तर एक अभावरूप वस्तु का जन्म होता है; और क्योंकि यह अभावरूप वस्तु ज्ञेयरूप है यह कहना युक्तिसंगत है कि वह भावरूप से (अर्थात् अस्तित्वशील रूप से) एक दूसरे ज्ञान का भी विषय बनती है (अर्थात् उस ज्ञान का जिसका जन्म उक्त भावरूप वस्तु के स्थितिक्षण के अनन्तर होता है)।
टिप्पणी-एक भावरूप वस्तु के स्थितिक्षण से अगले क्षण में एक
१. क का पाठ : संज्ञायते ।
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