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________________ ७८ शास्त्रवार्तासमुच्चय अवाञ्छनीय निष्कर्षों की ओर ले जाने वाला होने के कारण अनुचित है । गृहीतं सर्वमेतेन तत्त्वतो निश्चयः पुनः । मितग्रहसमारोपादिति तत्त्वव्यवस्थितेः ॥२६१॥ (उदाहरण के लिए) तब तो कहा जा सकेगा कि प्रत्यक्ष का स्वरूप ऐसा है कि उसके द्वारा हमें जगत् की सभी वस्तुओं का ग्रहण (=ज्ञान) सचमुच हो जाया करता है लेकिन इनमें से उन्हीं वस्तुओं का हमें निश्चय हुआ करता है जिनके विषय में परिमित ज्ञान का समारोप (= भ्रान्ति) हम कर बैठे होते हैं (अर्थात् जिनके सम्बन्ध में भूलवश हम यह समझ बैठे होते हैं कि हम इन्हीं वस्तुओं को जानते हैं)। टिप्पणी-यशोविजयजी की सूचनानुसार प्रस्तुत कारिका में 'तत्त्वतो निश्चयः पुनः' के स्थान पर एक पाठान्तर 'तत्त्वतोऽनिश्चयः पुनः' यह भी है; उसे स्वीकार करने पर संबंधित कारिका-भाग का, हिन्दी अनुवाद होगा..."लेकिन इन सब वस्तुओं का निश्चय हमें इसलिए नहीं होता कि उन उन वस्तुओं के संबंध में परिमित ज्ञान का समारोप (= भ्रान्ति) हम कर बैठे होते हैं...." एकत्र निश्चयोऽन्यत्र निरंशानुभवादपि । न तथा पाटवाभावादित्यपूर्वमिदं तमः ॥२६२॥ यह कहना अपूर्व अज्ञान का सूचक है कि एक अंशहीन अनुभव भी अनुभूत विषय के एक अंश के सम्बन्ध में तो निश्चय (अर्थात् निश्चित जानकारी) करा पाता है लेकिन असमर्थ होने के कारण उसी विषय के एक दूसरे अंश के सम्बन्ध में वैसा नहीं करा पाता । टिप्पणी-प्रस्तुत वादी इस संभावना को स्वीकार कर रहा है कि कोई प्रत्यक्ष ज्ञान अपना विषय बनी हुई वस्तु के स्वरूप के सम्बन्ध में निश्चित जानकारी तो करा पाए लेकिन इस वस्तु के हो रहे नाश के सम्बन्ध में नहीं; इस पर हरिभद्र की आपत्ति है कि जब उक्त वस्तु का स्वरूप तथा उसका हो रहा नाश दोनों ही एक ही प्रत्यक्षज्ञान के विषय हैं तब यह संभव नहीं कि इनमें से एक के सम्बन्ध में निश्चित जानकारी तो ज्ञाता को हो लेकिन दूसरे के सम्बन्ध में महीं । स्वभावक्षणतो ह्यूज़ तुच्छता तन्निवृत्तितः । नासावेकक्षणग्राहिज्ञानात् सम्यग् विभाव्यते ॥२६३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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