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चौथो स्तबक
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ज्ञेयत्ववत् स्वभावोऽपि न चायुक्तोऽस्य तद्विधः । तदभावे न तज्ज्ञानं तन्निवृत्तेर्गतिः कथम् ? ॥२५८॥
अभाव को भावरूप वस्तुओं की भाँति उक्त स्वभाव वाला (अर्थात् अस्तित्वशील) मानना उसी प्रकार अ-युक्तिसंगत नहीं जैसे कि उसे (भावरूप वस्तुओं की भाँति) ज्ञेय रूप मानना अयुक्तिसंगत नहीं । सचमुच, यदि अभाव ज्ञेय रूप न हो तो हमें उसका ज्ञान नहीं होना चाहिए और उस दशा में प्रश्न उठेगा कि एक वस्तु के नाश का ज्ञान हमें कैसे हो (यह इसलिए कि एक वस्तु का नाश इस वस्तु का अभाव रूप ही तो है)।
टिप्पणी-इस कारिका के अन्तिम भाग में हरिभद्र एक थोड़ा नया सा प्रश्न उठाते हैं । क्षणिकवादी की मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु क्षण भर टिककर नष्ट हो जाती है, हरिभद्र उससे पूछते हैं कि कोई वस्तु नष्ट हो रही है यह ज्ञान हमें कैसे होता है । अगली कुछ कारिकाओं में इसी प्रश्न की चर्चा है ।
तत् तद्विधस्वभावं यत् प्रत्यक्षेण तथैव हि । गृह्यते तद्गतिस्तेन नैतत् क्वचिदनिश्चयात् ॥२५९॥
उत्तर दिया जा सकता है : "क्योंकि स्वयं नष्ट होना एक वस्तु का स्वभाव ही है इसलिए हम यह बात (अर्थात् यह बात कि यह वस्तु स्वयं नष्ट हो रही है) प्रत्यक्ष द्वारा जानते हैं; उसी प्रकार जैसे हम प्रत्यक्ष द्वारा यह बात जानते हैं कि यह वस्तु अमुक स्वरूप वाली (अर्थात् नीले आदि स्वरूप वाली है)। यह कारण है कि हमें इस वस्तु के नाश का ज्ञान हो पाता है।" लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि बात ऐसी नहीं क्योंकि कभी कभी ऐसा भी होता है कि एक वस्तु के नष्ट हो जाने पर भी हमें निश्चय नहीं हो पाता कि वह वस्तु नष्ट हो गई ।
समारोपादसौ नेति गृहीतं तत्त्वतस्तु तत् । यथाभावग्रहात् तस्यातिप्रसंगाददोऽप्यसत् ॥२६०॥
उत्तर दिया जा सकता है कि उक्त स्थल में वस्तुनाश विषयक निश्चय न होने का कारण समारोप (= भ्रान्ति) है, यद्यपि इस नाश का यथार्थ ग्रहण प्रत्यक्ष द्वारा हो गया होता है और वह इसलिए कि वस्तुस्वरूप की यथार्थ जानकारी कराना प्रत्यक्ष का स्वभाव है । लेकिन इस पर हमारा कहना है कि यह उत्तर
१. क का पाठ : यथाभाव ।
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