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शास्त्रवार्तासमुच्चय
सुझाव है कि तुच्छ वस्तुओं को भावरूप मान लिया जाए (ताकि एक तुच्छ वस्तु के नाश की बात युक्तिसंगत ठहर सके)। कहा जा सकता है कि एक अभावरूप वस्तु (जैसी कि तुच्छ वस्तुएँ हुआ करती हैं) भावरूप नहीं बन सकती, लेकिन बदले में हम पूछेगे कि तब एक भावरूप वस्तु अभावरूप कैसे बन जाती है (जैसी कि प्रस्तुत वादी की मान्यता है) ।
स्वहेतोरेव तज्जातं तत्स्वभावं यतो ननु ।
तदनन्तरभावित्वादितरत्राप्यदः समम् ॥२५५॥
उत्तर दिया जा सकता है कि ऐसा इसलिए कि एक भावरूप वस्तु उक्त स्वभाव को (अर्थात् अभाव रूप बन जाने की क्षमता को) साथ लिए हुए ही अपने कारण से जन्म पाती है; लेकिन इस पर हमारा पूछना है कि ठीक यही बात अभाव पर भी लागू क्यों न हो (अर्थात् वह भी भाव रूप बन जाने की क्षमता को साथ लिए हुए ही अपने कारण इसे जन्म क्यों न पाए) और वह इसलिए कि हम अभाव को एक भावरूप वस्तु के अनन्तर (अर्थात् इस वस्तु को कारण बना कर) उत्पन्न होते पाते ही हैं ।
नाहेतोरस्य भवनं न तुच्छे तत्स्वभावता ।
ततः कथं नु तद्भाव इति युक्त्या कथं समम् ? ॥२५६॥
कहा जा सकता है : अभाव का जन्म संभव नहीं क्योंकि अभाव का कोई कारण संभव नहीं; और नहीं एक तुच्छ वस्तु भावरूप हो सकती है। ऐसी दशा में अभाव को भाव रूप कैसे माना जा सकता है, और इस मान्यता को युक्तिसंगत कैसे ठहराया जा सकता है कि जो जो बातें भावरूप वस्तुओं पर लागू होती हैं वे ही अभाव पर भी लागू होनी चाहिए । इस पर हमारा उत्तर है:
स एव भावस्तद्धेतुस्तस्यैव तथाऽस्थितेः । स्वनिवृत्तिः स्वभावोऽस्य' भावस्येव ततो न किम् ? ॥२५७॥
एक अभाव जिस भावरूप वस्तु के अनन्तर उत्पन्न होता है वही उसका कारण है, क्योंकि यह भावरूप वस्तु ही उस समय (अर्थात् उक्त अभाव के जन्म के समय) अनुपस्थित होती है और ऐसी दशा में स्वयं नष्ट होना अभाव का स्वभाव उसी प्रकार क्यों न माना जाए जैसे कि वह एक भावरूप वस्तु का स्वभाव हुआ करता है ।। १. क ख दोनों का पाठ : स्वनिवृत्तिस्व' । २. क का पाठ : भावस्यैव ।
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