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________________ चौथा स्तबक ७५ करता, लेकिन इस पर हमारा पूछना है कि उस दशा में इस वस्तु की सत्ता सदा क्यों नहीं बनी रहती ? । उत्तर दिया जा सकता है कि ऐसा इसलिए कि (एक क्षण बाद) एक वस्तु की सत्ता ही अस्तित्व में नहीं बनी रहती; लेकिन इस पर हमारा कहना होगा कि एक वस्तु की सत्ता के अस्तित्व में न बने रहने को ही बुद्धिमान् लोग उस वस्तु के अभाव का अस्तित्व में आना मानते हैं। कादाचित्कमदो यस्मादुत्पाद्यस्य तद् ध्रुवम् । . तुच्छत्वान्नेत्यतुच्छस्याप्यतुच्छत्वात् कथं ननु ? ॥२५३॥ और क्योंकि एक वस्तु के अभाव का यह अस्तित्व में आना किसी समयविशेष पर ही हुआ करता है इसलिए इस अभाव की उत्पत्ति आदि की कल्पना करना अनिवार्य हो जाता है। कहा जा सकता है कि अभाव एक तुच्छ (अभावरूप) वस्तु होने के कारण उसकी उत्पत्ति आदि की कल्पना करना उचित नहीं लेकिन इस पर हमारा पूछना है एक अतुच्छ (भावरूप) वस्तु की उत्पत्ति की कल्पना भी इस आधार पर अनुचित क्यों नहीं कि यह वस्तु अतुच्छ है। टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि अभाव को 'तुच्छ' कहना एक पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग भर है; वरना जिस प्रकार भाव रूप वस्तुओं के सम्बन्ध में उत्पत्ति, नाश आदि का प्रश्न उठता है उसी प्रकार का प्रश्न अभाव के संबन्ध में भी उठना चाहिए, यदि प्रस्तुत वादी की तर्कसरणि को स्वीकार करके चला जाए । तदा भूतेरियं तुल्या तन्निवृत्तेर्न तस्य किम् । तुच्छाताप्तेर्न भावोऽस्तु नासत् सत् सदसत् कथम् ? ॥२५४॥ उत्तर दिया जा सकता है कि एक अतुच्छ वस्तु तो एक समयविशेष पर अस्तित्व में आती पाई जाती है, लेकिन इस पर हमारा कहना है कि यही बात एक वस्तु के अभाव पर भी लागू होती है (अर्थात् यह अभाव भी किसी समयविशेष पर अस्तित्व में आता पाया जाता है) । कहा जा सकता है कि एक अतुच्छ वस्तु का नाश होता पाया जाता है, लेकिन इस पर भी हमारा पूछना है कि यही बात एक वस्तु के अभाव पर भी लागू क्यों न हो (अर्थात् इस अभाव का भी नाश क्यों न हो) । उत्तर दिया जा सकता है कि एक तुच्छ वस्तु तो तुच्छता प्राप्त किए ही होती है (जबकि एक अतुच्छ वस्तु के नाश का अर्थ होता है उस वस्तु का तुच्छता प्राप्त करना); लेकिन इस पर हमारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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