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चौथा स्तबक 'अभाव से भाव की उत्पत्ति' स्वीकार करती हैं तथा दूसरी मान्यता 'भाव से अभाव की' । ठीक अगली कारिका में वे इन दोनों आलोच्य मान्यताओं को शब्दशः हमारे सामने रखते हैं और उसके बाद क्रमांक २४९ से २७५ तक की कारिकाओं में इनमें से दूसरी का खंडन करते हैं जबकि क्रमांक २७६ से ३०२ तक की कारिकाओं में इनमें से पहली का ।
(२) 'भाव अभाव बन जाता है' इस मत का खंडन
नाभावो भावतां याति शशश्रले तथाऽगतेः ।
भावो नाभावमेतीह तदुत्पत्त्यादिदोषतः ॥२४८॥
एक अभाव रूप वस्तु कभी भाव रूप नहीं बनती, क्योंकि हम देखते हैं कि शशश्रृंग (जो एक अभाव रूप वस्तु है) कभी भाव रूप नहीं बनता । इसी प्रकार, एक भावरूप वस्तु कभी अभाव रूप नहीं बनती, क्योंकि उस दशा में इस अभाव रूप वस्तु की उत्पत्ति आदि के प्रश्न को लेकर कठिनाईयाँ उठेगी ।
टिप्पणी-एक अभावरूप वस्तु की उत्पत्ति आदि के प्रश्न को लेकर उठने वाली जिन कठिनाईयों की ओर इंगित प्रस्तुत कारिका में किया गया है उनका विस्तृत निरूपण ठीक अगली कारिका से प्रारंभ किया गया है ।
सतोऽसत्त्वे तदुत्पादस्वसो नाशोऽपि तस्य यत् ।
तन्नष्टस्य पुनर्भावः सदा नाशे न तत्स्थितिः ॥२४९॥ , यदि कहा जाए कि एक भावरूप वस्तु ही अभावरूप बन जाती है तो मानना पड़ेगा कि इस अभाव की उत्पत्ति हुई, और क्योंकि जिसकी उत्पत्ति होती है उसका नाश भी होता है, अब हमें मानना पड़ेगा कि एक नष्ट हुई वस्तु (अपने अभाव का नाश होने के फलस्वरूप) दुबारा अस्तित्व में आया करती है। दूसरी ओर, यदि कहा जाए कि एक वस्तु का नाश (=अभाव) सर्वदा स्थाई हुआ करता है तो मानना पड़ेगा कि यह वस्तु कभी अस्तित्व में आती ही नहीं।
टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका से प्रारम्भ होने वाले हरिभद्र के क्षणिकवादखंडन के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ जिस मान्यता के विरुद्ध आपत्तियाँ उठाई जा रही हैं उसके अनुसार एक वस्तु अपने स्थितिक्षण में सर्वथा सत्ताशील हुआ करती है तथा अपने स्थितिक्षण से अतिरिक्त क्षणों में
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