________________
७२
शास्त्रवार्तासमुच्चय मान्यताओं के विरुद्ध हरिभद्र की आपत्ति यह है कि यदि उक्त दृष्टान्त में बीज प्रतिक्षण एक नया रूप मात्र धारण करता है तो यह कहना उचित नहीं कि यहाँ बीज प्रतिक्षण एक नया बीज बन जाता है और यदि यहाँ बीज प्रतिक्षण एक नया बीज सचमुच बन जाता है तो यह कहना उचित नहीं कि बीज प्रतिक्षण एक नया रूप धारण करता है । हरिभद्र की अपनी मान्यतानुसार बीज एक स्थायी द्रव्य है जिसकी अवस्थाएँ मात्र प्रतिक्षण बदला करती हैं और उनकी आपत्ति है कि क्षणिकवादी जो किसी स्थायी वस्तु की सत्ता में विश्वास नहीं रखता, 'क्षणपरंपरा' की अपनी कल्पना की आड़ में अपनी कमजोरी छिपा रहा है । जहाँ तक उपादानकारणता का प्रश्न है हरिभद्र कहेंगे कि उक्त दृष्टान्त में स्थायी बीज उपादान कारण है अपनी प्रतिक्षण-नवीन अवस्थाओं का ।
एतदप्युक्तिमात्रं यन्न हेतुफलभावतः ।
सन्तानोऽन्यः स चायुक्त एवासकार्यवादिनः ॥२४७॥
लेकिन यह सब कहना केवल बात बनाना है, क्योंकि जिस 'क्षणसंतान' की कल्पना का सहारा प्रस्तुत वादी ले रहा है वह वस्तुतः कार्यकारणभाव से अतिरिक्त कुछ नहीं और (इस वादी की भाँति) असत्कार्यवाद का सिद्धान्त स्वीकार करने पर कार्यकारणभाव की कल्पना अयुक्तिसंगत सिद्ध होती ही है ।
टिप्पणी-जैसा कि अभी कहा जा चुका है, क्षणिकवादी की मान्यतानुसार एक क्षण-परंपरा का निर्माण ऐसे घटक करते हैं जिनमें से प्रत्येक अपने तत्काल परवर्ती घटक का उपादानकारण है तथा जिसका अपना उपादानकारण है उसका अपना तत्काल पूर्ववर्ती घटक । इसका अर्थ यह हुआ कि क्षणिकवादी की मान्यतानुसार एक कारण (अर्थात् उपादानकारण) अपने कार्य के जन्म के समय उपस्थित नहीं रहता तथा एक कार्य अपने कारण (अर्थात् अपने उपादानकारण) के स्थितिकाल में उपस्थित नहीं रहता । 'असत्कार्यवाद' शब्द का अर्थ है 'वह दार्शनिक सिद्धान्त जिसके अनुसार एक कार्य अपने जन्म के पूर्व सर्वथा असत्ताशील हुआ करता है' । प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र क्षणिकवादी के मत को 'असत्कार्यवाद' नाम दे रहे हैं लेकिन आगामी कारिकाओं में वे जिस सिद्धान्त का खंडन करने जा रहे हैं उसकी मूल-मान्यताएँ दो हैं; एक तो यह कि एक कार्य अपने जन्म के पूर्व सर्वथा असत्ताशील हुआ करता है और दूसरी यह कि एक कारण अपने कार्य के जन्म के समय सर्वथा असत्ताशील हो जाया करता है । हरिभद्र की अपनी शब्दावली में पहली मान्यता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org