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चौथा स्तबक
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'मन' नाम दिया गया है तथा उसे क्षणिक माना गया है; इस पर हरिभद्र की प्रस्तुत आपत्ति है कि एक सदाचरण करने वाला मन यदि इस सदाचरण करने के स्थितिक्षण तक ही अस्तित्व में रहता है तो किसी आगामी समय में इस सदाचरण का सुफल भोगना इस मन के लिए कैसे भी सम्भव नहीं होना चाहिए ।
संतानापेक्षयाऽस्माकं व्यवहारोऽखिलो मतः । स चैक एव तस्मिंश्च सति कस्मान्न युज्यते ॥२४५॥ यस्मिन्नेव तु संताने आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव संधत्ते कसे रक्तता यथा ॥२४६॥
कहा जा सकता है : "उक्त सभी व्यवहारों को हम क्षण-सन्तान (क्षणपरंपरा) की कल्पना की सहायता से सम्भव सिद्ध करते हैं और यह क्षण-सन्तान हमारे मतानुसार एक है ही; तब क्षण सन्तान की हमारी कल्पना के रहते यह कैसे कहा जा सकता है कि उक्त व्यवहारों के सम्बन्ध में प्रतिपादित हमारी मान्यताएँ युक्तिसंगत नहीं ? होता यह है कि कर्मवासना जिस क्षणसंतान में जन्म पाती है उसी में वह आगे चलकर फल को जन्म देती है-उसी प्रकार जैसे कपास के जिस बीज को लाल रंगा जाता है उसी से जन्म पाने वाली कपास लाल रंग की होती है।
टिप्पणी प्रस्तुत कारिकाओं से जाना जा सकता है कि क्षणिकवादी की मान्यतानुसार यद्यपि जगत् की प्रत्येक वस्तु क्षणिक है लेकिन यह भी अपने स्थान पर सच है कि विभिन्न क्षणिक वस्तुएँ विभिन्न 'संतानों' अर्थात् परंपराओं का निर्माण करती हैं । उदाहरण के लिए, एक बीज बोए जाने के समय से लेकर अंकुर उत्पन्न करने के समय तक प्रतिक्षण नया नया रूप धारण करता रहता है-दूसरे शब्दों में वह प्रतिक्षण नया ही बीज बनता रहता है, लेकिन बीज के ये प्रतिक्षण नवीन रूप-दूसरे शब्दों में, ये प्रतिक्षणनवोत्पन्न बीज, एक परंपरा का निर्माण करते हैं । इस बीजरूप परंपरा अथवा बीजपरंपरा के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि उसका एक घटक विशेष अपने तत्काल परवर्ती घटक का उपादान कारण है जबकि इस घटकविशेष का अपना उपादान कारण है, उसका अपना तत्काल पूर्ववर्ती घटक । जैसा कि हम आगे देखेंगे, क्षणिकवादी की इन
१. सन्तान के घटकभूत तत्त्वों के लिए संस्कृत में 'संतानी' शब्द का प्रयोग भी होता है,
लेकिन हिन्दी में 'संतान' शब्द ही अपने मूल संस्कृत अर्थ में प्रचलित नहीं।
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