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________________ शास्त्रवार्तासमुच्चय अत्राप्यभिदधत्यन्ये स्मरणादेरसंभवात् । बाह्यार्थवेदनाच्चैव सर्वमेतदपार्थकम् ॥२४१॥ इस पर भी किन्हीं दूसरे वादियों का कहना है कि ये सब बेकार की बातें हैं क्योंकि क्षणभंगवाद का सिद्धान्त स्वीकार करने पर स्मरण आदि को असंभव घटनाएँ मानना पड़ेगा जबकि विज्ञानवादी कि मान्यता के विरुद्ध हमें साक्षात् अनुभव होता है कि बाह्य (अर्थात् भौतिक) ज्ञेय वस्तुएँ भी हुआ करती हैं । अनुभूतार्थविषयं स्मरणं लौकिकं यतः । कालान्तरे तथाऽनित्ये मुख्यमेतन्न युज्यते ॥२४२॥ सचमुच, पूर्वानुभूत वस्तुओं का कालान्तर में स्मरण, जो एक लोकसिद्ध बात है वास्तविक अर्थ में संभव न होगा यदि जगत् की वस्तुओं को इस प्रकार से (अर्थात् क्षणभंगवादी की भाँति) अनित्य मान लिया जाए (अर्थात् यदि उन्हें क्षणभंगुर मान लिया जाए) । . ___ सोऽन्तेवासी गुरुः सोऽयं प्रत्यभिज्ञाऽप्यसंगता । दृष्टकौतुकमुद्वेगः प्रवृत्तिः प्राप्तिरेव च ॥२४३॥ (क्षणभंगवाद का सिद्धान्त स्वीकार करने पर) यह वही शिष्य है तथा यह वही गुरु है इस प्रकार की पहचान का होना अयुक्तिसंगत सिद्ध होगा; और इसी प्रकार अयुक्तिसंगत सिद्ध होगा एक पूर्वानुभूत वस्तु को पाने की इच्छा करना, उसे न पाने पर उद्विग्न होना, उसे पाने के लिए प्रयत्नशील होना तथा उसे पाना । . टिप्पणी-यहाँ यशोविजयजी 'दृष्टकौतुकमुद्वेगः' के स्थान पर 'दृष्टकौतुक उद्वेगः (= दृष्टकौतुके उद्वेगः) यह पाठ स्वीकार करते हैं, लेकिन उससे अर्थ में कोई तात्त्विक अन्तर नहीं आता । स्वकृतस्योपभोगस्तु दूरोत्सारित एव हि । - शीलानुष्ठानहेतुर्यः स नश्यति तदैव यत् ॥२४४॥ ___ उस दशा में अपने किए हुए काम का फल भोगने की संभावना तो एक बहुत दूर की बात हो जाएगी. और वह इसलिए कि क्षणभंगवादी की मान्यतानुसार शीलयुक्त आचरण के कारणभूत मन का नाश तत्क्षण हो जाता है। टिप्पणी--जैसा कि पहले कहा जा चुका है बौद्धपरंपरा में चेतनतत्त्व को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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