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चौथा स्तबक
(१) क्षणिकवाद-खंडन की प्रस्तावना मन्यन्तेऽन्ये जगत् सर्वं क्लेशकर्मनिबन्धनम् ।
क्षणक्षयि महाप्राज्ञा ज्ञानमात्रं तथाऽपरे ॥२३८॥
कुछ वादियों की मान्यता है कि यह समूचा जगत् (अर्थात् इस जगत् की प्रत्येक वस्तु) दोषयुक्त कर्मों के फलस्वरूप प्रादुर्भूत हुआ है तथा क्षणभंगुर है । कुछ दूसरे महान् बुद्धिमानों का कहना है कि इस जगत् में ज्ञान (अर्थात् चैतन्य) ही एकमात्र वास्तविक तत्त्व है।
त आहुः क्षणिकं सर्वं नाशहेतोरयोगतः ।
अर्थक्रियासमर्थत्वात् परिणामात् क्षयेक्षणात् ॥२३९॥
उनका (अर्थात् क्षणभंगवादियों का कहना है कि जगत् की प्रत्येक वस्तु क्षणिक है क्योंकि उसके विनाश का कोई कारण संभव नहीं, क्योंकि वह अर्थक्रिया (=कार्यसिद्धि) करने में समर्थ है, क्योंकि उसमें रूप-रूपान्तरण होता है, क्योंकि उसका नाश होते देखा जाता है ।
टिप्पणी प्रस्तुत कारिका में गिनाई क्षणिकवाद-समर्थक चार युक्तियों का क्रमशः तथा विस्तृत खंडन छठे स्तबक में किया गया है ।
ज्ञानमात्रं च यल्लोके ज्ञानमेवानुभूयते । नार्थस्तद्व्यतिरेकेण ततोऽसौ नैव विद्यते ॥२४०॥
(विज्ञानवादियों का कहना है कि) इस जगत् में ज्ञान ही एकमात्र वास्तविक तत्त्व है क्योंकि हमें अनुभव एकमात्र ज्ञान का ही होता है; जहाँ तक ज्ञान से अतिरिक्त किसी ज्ञेय-वस्तु का प्रश्न है उसका अनुभव हमें होता नहीं और ऐसी दशा में कहना चाहिए कि ज्ञान से अतिरिक्त किसी ज्ञेय-वस्तु का अस्तित्व है ही नहीं ।
१. क का पाठ : अर्थक्रियाऽस' ।
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