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तहवि निसुणेह सुंदरि ! दुक्खं अइ-दुखि(८०अ)यं परं दटुं। सुहिए अइ-सुहियं च य हरिस-विसाओ न कायव्वो।।५६२।। जे आवईसु धीरा विहवम्मि अगब्विया अमच्छरिणो। पर-वसणे सुसहाया ते पुरिसा पुरिस-गणणाए।।५६३ ।। किं चुजं जं इह आवईओ चिट्ठिओ हुँति मणुयाणं। खंडण-गहणऽत्थवणं पावइ चंदो वि कम्म-वसा।।५६४।। संजोगस्स वियोगो जम्मो मरणस्स कारणं नूणं। विहवस्स वि निहणत्तं जराए जोयण-सिरि रूद्धा।।५६५ ।। ता मा कुण उव्वेयं सुयणु ! जियंतस्स मिलइ जीवंतो। सो धीरो जो आवइ-गओ वि अवलंबए सत्तं ।।५६६।। अण्णं च सुहियं वि णडेइ विही दुहियं दूहबइ तह विसेसेण। (८०ब) न चयइ बालं विद्धं परिणयवयसं णिवं भिच्वं ।।५६७।। न इ मंतवाइ-विजं नीरोयं नेय चेयइ वाहिल्लं । विणडेइ निग्घिणो एस हयविही किंऽत्थ सोएण? ।।५६८।। कित्तिय-मित्तं एयं सोयव्वं सुयणु! मणुयवासम्मि। संसारो जं नूणं दुक्ख-निहाणं कओ विहिणा।।५६९।। तणु-तिणविलग्ग-जल-लव-समाणयं जीवियं च लायण्णं । लच्छी वि चला चवलच्छि! निच्चला सुकिय-परिवाडी।।५७० ।। अहवारक्खस-पिसाय-डाइणि-विंतर-वेयाल-भूय-गहिया वि। गह-रिक्ख-पीडिया वि हु निव-तक्कर-विंद-धरिया वि।।५७१।। वण-जलण-डज्झमाणा विडलोय-गय-सीह-वग्घ-गसिया वि। सर-दह-तलाय-जलनिहि-मज्झे जइ(८१अ)निवडिया कह व॥५७२॥ अहवा जइ खर-पवणुद्धया वि जे भिण्ण-जाणवत्ता वि।
गुरु-रोग-गहिय-देहा दरिद्द-चिंताए जे गहिया।।५७३ ।। १. आवईउ.
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