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अह भणसि जन्न-हुणिया मंत-पहावेण जंति ते सग्गं। ता डाइणि-मंताकरिसिया वि वच्चंति किं सग्गं।।४०५।। ता सव्वं अलि(५७ब)यमिणं जीवा निय-कम्म-परिणइ-वसेण। पावंति दुक्ख-सोक्खाई कम्म-फलिणो सया जीवा।।४०६ ।। होज्जा जलणे वि जलं विसहर-दाढाए होज अमयं पि। होजा ससस्स सिंगं न हु धम्मो जीव-हिंसाए।।४०७।। अकएहिं महा-तव-संजमेहिं णं विजए कहं सग्गो। किं कोहवे पइण्णे कया वि लुणिजए साली? ।।४०८।। जइ सुर-सोक्खं लब्भइ अकय-तवेहिं पि जीव-वहणेण। ता किं रजं मुत्तुं तवं पकुव्वंति सप्पुरिसा।।४०९।। निसुणेह ताय ! तइया मुणीहिं जो मज्झ साहिओ देवो। (५८अ) भव-जलहि-जाणतुल्लो धम्मो विहुसव्व-जीव-हिओ ॥४१०॥ जो पुत्त-कलत्तासा-निबद्ध-दिढ-बंधणेहिं न हु बद्धो। वच्छत्थलम्मि न हओ कया वि[हुअणंगबाणेहिं।।४११।। जो कइया वि न भयओ करेणं उव्वहइ पहरण-विसेसं। जो पह-खीणो कइया(५८ब) आरुहइ न वाहणं जाणं।।४१२।। सत्तास-रहारूढो 'पइदियहं जो न कमइ ग(य)णयलं। जस्स न उदयऽत्थमणं खंडण-गहणं न कइया वि।।४१३ ।। बुद्धो ब्व अक्ख-माला-विहूसिओ गहिय-जोगमुद्दो-करो। न ज्झायइ परम-पयं उव्वहइ न पोत्थ(५९अ)यं छत्तं ।।४१४।। इत्थ निवाणी कुवी अनुसिंचइ ऊसूरि(?)। तह निहसा निह खमि न सिजइ(?)।।४१५।। दूरि एओ संसार-पलिवणं वि ह दुहेहि(?) पलितु(?) ता सिंचिजइ धम्म-जलं तं उल्हवण-निसेत्तु (?मित्तं)।।४१६ ।। जो पुत्त-कलत्ताभरण-वाहणारुह(५९ब)ण-पहरण-विमुक्को।
परिचत्त-सयल-चिंतो सो देवाणं महादेवो।।४१७।। १. पयदियहं. २. धम्मं. ३. त.
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