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. [81] यह नदी का तट तूट जायेगा । यहाँ पर "पिपतिषति" क्रियापद में से 'इच्छा' रूप अर्थ व्यक्त नहीं होता है । परन्तु 'आशङ्का' रूप अर्थ प्रकट हो रहा है । इसी तरह से - अयं रुग्णः श्वा मुमूर्षति । "मुझे लगता है कि यह रोगी शायद कल मर जायेगा ।" जब वक्ताश्रोता के बीच में आशङ्का का सम्भाषण-सन्दर्भ होता है, तो वह /-सन्/ प्रत्यय का प्रयोग इस विशिष्ट अर्थ में करता है ।।
(५) हेतुमति । ३-१-२६ सूत्र से प्रयोजक ('हेतु') कर्ता के प्रेरणा रूप व्यापार को प्रकट करने के लिए, धातु से परे णिच् प्रत्यय का विधान किया गया है । यथा - देवदत्तः यज्ञदत्तेन कटं कारयति । ओदनं पाचयति । इत्यादि । परन्तु कात्यायन कहते है कि -
आख्यानात् कृतस्तदाचष्ट इति कृल्लुक प्रकृतिप्रत्यापत्तिः प्रकृतिवच्च कारकम् (वा०६)
अर्थात् आख्यान वाचक कृदन्त शब्द से (भी) "णिच्' प्रत्यय होता है; "तदाचष्टे" ऐसे अर्थ जो अभिव्यक्त करने के लिए । यथा - (१) कंसवधम् आचष्टे → कंसं घातयति । (२) बलिबन्धम् आचष्टे → बलिं बन्धयति ॥ यहाँ पर जो सम्भाषण-सन्दर्भ है वह इस प्रकार का है :- कौई पौराणिक कथाकार जनसमुदाय के समक्ष बैठकर कृष्ण के द्वारा मातुल कंस का वध किस तरह किया गया था ? इसका पुराणोक्त आख्यान कह रहा है । कथा संकीर्तन के प्रसङ्ग में वह इतना ओतप्रोत है, भावावेश में है कि उस पौराणिक को देखकर एक वक्ता दूसरे श्रोता को कहता है कि - 'अयं कंसं घातयति ।' यहाँ पर वास्तव में पौराणिक व्यक्ति कंस का घात नहीं करता है; वह तो केवल कंसवध का आख्यान सुना रहा है । अर्थात् यहाँ 'घातयति' ऐसा णिजन्त (प्रेरक) प्रयोग एक विशिष्ट सम्भाषण सन्दर्भ को उजागर करने के लिए प्रयुक्त किया गया है ।। — (६) अनद्यतने लुट् । ३-३-१५ से अनद्यतन भविष्यत् काल अर्थ में लुट् लकार का प्रयोग होता है । यथा - श्वो भोक्ताऽयं ब्राह्मणः । (यह ब्राह्मण कल भोजन करनेवाला है ।) श्वो गन्ताऽयं परिव्राजकः ॥ परन्तु कात्यायन कहते हैं कि - परिदेवने श्वस्तनी भविष्यन्त्यर्थे । (वा० १) अर्थात् सामान्य भविष्यत् काल के अर्थ में श्वस्तनी का (= लुट् लकार का) प्रयोग होता है, जब परिदेवना व्यक्त करने का अवसर हो तब ॥ यथा - इयं नु कदा गन्ता, या एवं पादौ निदधाति । कोई विलासवती युवती अपनी लीलापूर्वक चल रही है; (जिस में कोई वेग ही नहीं है) । उसे देखकर उसकी सास कहेगी कि यह कब अपने लक्ष्य स्थान
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