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[82] पर पहुँचेगी; यदि ऐसे ही मन्थर गति से पाद रखती रहेगी तो ? – तो यहाँ 'गमिष्यति' (= लुट्) के स्थान पर गन्ता (= 'लुट्') का प्रयोग करके वक्ता परिदेवना (= एक प्रकार का विषाद या शिकायत) का भाव व्यक्त करता है । 2.2 सामासिक-प्रयोगों में सम्भाषण सन्दर्भ : ____ कात्यायन ने भाषा में कतिपय ऐसे भी स्थान देखे हैं कि जहाँ विशिष्ट विभक्ति-प्रयोग के साथ एक निश्चित सम्भाषण-सन्दर्भ जुड़ा हुआ रहता है । यथा -
(१) षष्ठ्या आक्रोशे । ६-३-२१ सूत्र में पाणिनि ने ही कहा है कि वाग्व्यवहारमें आक्रोश व्यक्त करना हो तो, उत्तरपद पर में रहे तब, पूर्वपद में आयी हुई षष्ठी विभक्ति का अलुक् (समास) होता है । उदाहरण के लिए - चौरस्य कुलम् । दास्याः पुत्रः । __ यहाँ पर कात्यायन ने एक वार्तिक प्रस्तुत किया है :- देवानांप्रिय इति च । (वा० ३) इस वार्त्तिक के पीछे कुछ इतिहास छुपा हुआ है । सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म का स्वीकार करके सारे भारतवर्ष में अनेक शिलालेखा उत्कीर्ण करवाये थे । इन पर लिखा था कि - देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा आज्ञापयति..... [देवों के प्रिय, प्रियदर्शी राजा अशोक की आज्ञा है कि उसके राज्य में किसी को हिंसा या मद्यपान नहीं करना है इत्यादि ॥] अर्थात् सम्राट अशोक ने अपने नाम के पूर्व में 'देवानां प्रियः' ऐसा एक विशेषण जोड़ दिया था । परन्तु उसने ब्राह्मणधर्म छोड़ कर, बौद्ध धर्म का अवलम्बन किया था । अतः इस के द्वेष में ब्राह्मणसंस्कृति के अन्दर यह 'देवानां प्रियः' शब्द एक प्रकार के आक्रोश में या व्यङ्ग्य में प्रयुक्त होने लगा था । अत: कात्यायन ने उपर्युक्त वार्तिक से इस शब्द को षष्ठ्या आक्रोशे । ६-३-२१ सूत्र के अन्तर्गत षष्ठी अलुक् के विषय में स्थिर कर दिया । मूलतः तो यह शब्द आक्रोश व्यक्त नहीं करना था । 'देवप्रियः' जैसा सामासिक शब्द और 'देवानां प्रियः' जैसा विग्रह वाक्य होनों ही एक साधु समान अर्थ में प्रचलित था। परन्तु कालान्तर में ब्राह्मणसंस्कृति
और बौद्धसंस्कृति के बीच में विरोध हो जाने के बाद [और सम्राट अशोक ने अपने लिए यह विशेषण का प्रयोग व्यापक रूप से शुरू किया तो] पूर्वोक्त वार्तिक से यह स्पष्ट किया गया कि 'देवानां प्रियः' जैसा षष्ठी अलुक् सेमास आक्रोश, निन्दा जैसे अर्थ में प्रचलन में आ गया है; अलबत्त ब्राह्मणसंस्कृति में !17 यह विरोध जैसे जैसे तीव्र होता गया है वैसे 17. बाणभट्ट (६५० A.D.)ने तो इस शब्द का साधु अर्थ में ही प्रयोग किया है क्योंकि
सम्राट हर्षवर्धन ने बौद्धधर्म को भी राज्याश्रय दिया था । द्रष्टव्यः हर्षचरितम्, सं. पी. वी. काणे, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1986, (p. 11, 129)
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