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[79] इसी दिशा में आगे चलकर भाष्यकार पतञ्जलि ने 'अपरे आहुः' कह कर कोई अन्य वार्तिककार का मत भी जोड़ा है कि - सुप्तमत्तयोरुत्तम इति वक्तव्यम् । अर्थात् उत्तमपुरुष के साथ जब लिट् कार का प्रयोग किया जाता है तब, वहाँ वक्ता सुप्त या मत्त अवस्था में बोल रहा है ऐसा सम्भाषण-सन्दर्भ अभिव्यक्त होता है । यथा-सुप्तोऽहं किल विललाप ?! मत्तोऽहं किल विललाप ?! यहाँ चित्तव्याक्षेप की स्थिति प्रकट करने के लिए लिट् का प्रयोग यथार्थ है ।16
(२) लुङ् । ३-२-११० सूत्र कहता है कि - भूतसामान्य अर्थ में धातु से लुङ् लकार का प्रयोग करना चाहिए । परन्तु यहाँ वार्तिककार कात्यायन कहते है कि - वसेर्लुङ् रात्रिशेषे । (वा० ३); जागरणसंततौ । (वा० ४)॥ अर्थात् कोई व्यक्ति रात्रि के तीनों प्रहर जागरण करके हमारे घर बैठा रहता है (क्षणभर भी सोता नहीं है) । इस सन्दर्भ में यदि हम उसे पूछे कि - किम् अत्र भवान् उषितः ? (क्या आप यहाँ रहे थे ?) । तो वह (जागरणशील) व्यक्ति कहेगा कि - अहम् अत्र अवात्सम् । (हाँ, में यहाँ रहा हुँ) यहाँ पर गतदिन की = ह्यस्तनभूतकाल की ही बात होने हुए भी 'अवसम्' क्रियापद का प्रयोग नहीं होता है; परन्तु लुङ् लकार का ही (अवात्सम्) प्रयोग होता है । इस अनद्यतन (ह्यस्तन) भूत के सन्दर्भ में भी वक्ता-श्रोता के बीच यदि लुङ् का प्रयोग हो जाता है तो यह बात व्यक्त होती है कि बोलने वाला व्यक्ति रात में सोया ही नहीं है; उसने जाग्रत अवस्था में ही रात बीताई है।
(३) अनद्यतने लङ् । ३-२-१११ से अनद्यतन अर्थात् ह्यस्तन भूतकाल अर्थ में लङ् लकार का विधान किया गया है । परन्तु कात्यायन एक विशेष सम्भाषण सन्दर्भ को उजागर करते हुए लिखते है कि - परोक्षे च लोकविज्ञाते प्रयोक्तुर्दर्शनविषये (लङ् वक्तव्यः) । 15. व्याकरण-महाभाष्यम् (Vol. II), BORI, पृ. १२०. 16. अत्र काशिका - उत्तमविषयेऽपि चित्तव्याक्षेपात् परोक्षता सम्भवत्येव, तद्यथा-सुप्तोऽहं
किल विललाप । (अत्र पदमञ्जरी-) मदस्वप्नादिभिश्चिते व्याक्षिप्ते भवति वै कश्चित्स्वकृतमेव न जानाति, पश्चादेव त्वया कृतमिति पार्श्वस्थेभ्यः श्रुत्वा प्रयुक्ते सुप्तोऽहं किल विललाप इति । किल इति अज्ञानं सूचयति ॥ काशिका (न्याय-पदमञ्जरी सहिता), सं. द्वारिकादासशास्त्री एवं कालिकाप्रसाद शुक्लः, प्राच्यभारतीप्रकाशन, वाराणसी, १९६५ (द्वितीयो भागः), पृ. ६३०.
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