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तृतीया ★ 1114 अर्थात् दा धातु के प्रयोग में, जब अशिष्ट - व्यवहार द्योतित करने की इच्छा हो तब चतुर्थी विभक्ति के अर्थ में तृतीया विभक्ति होती है यथा दास्या संयच्छते कामुकः । यहाँ वक्ताने 'दास्यै' के स्थान पर, तृतीया (दास्या) का प्रयोग करके अशिष्ट-अधर्मयुक्त व्यवहार की और श्रोता का ध्यान आकृष्ट किया है । इस तरह वक्ता - श्रोता के सम्भाषण सन्दर्भ को ध्यान में रखकर जब किसी विशेष भाषाभिव्यक्ति का उल्लेख करना जरूरी होता है, तो वह कार्य वार्तिककार के द्वारा निर्दिष्ट किये जाते हैं ।
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इन त्रिविध ‘अनुक्तचिन्ता - प्रवर्तक' वार्त्तिकों में से, जहाँ पर सम्भाषण - सन्दर्भों का उल्लेख किया गया है, उसका अब विशेष रूप से अध्ययन प्रस्तुत किया जायेगा || 2.1 वार्त्तिकों में सम्भाषण सन्दर्भों का उल्लेख :
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सूत्रकार पाणिनि ने जहाँ एक प्रत्यय से केवल व्याकरणिक अर्थ का विधान किया है, वहाँ कात्यायन ने वक्ता - श्रोता के बीच का विशेष सम्भाषण - सन्दर्भ ध्यान में लेकर कदाचित् विशिष्टार्थ की प्रतीति उद्भासित होती हुई भी देखी है । और उसे वार्त्तिकवचन में शब्दबद्ध भी की है । उदाहरण के लिए
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(१) परोक्षे लिट् । ३-१ - ११५ सूत्र से परोक्ष भूतकाल अर्थ में लिट् लकार का विधान किया गया है । यथा युधिष्ठिरो नाम राजा बभूव । अत्यन्त दूर का जो भूतकाल है अर्थात् हमारे जन्म से पूर्व में जो घटना घटित हो चूकी है, उसके लिए हम लिट् लकार का प्रयोग कर सकते है । परन्तु यहाँ कात्यायन कहते है कि परोक्षे लिड् अत्यन्तापह्नवे च । ( वा० १) अर्थात् वक्ता जब कोई बात को संगोपित करना चाहता है; या कोई क्रिया कभी भी घटित ही नहीं हुई है ऐसा प्रदर्शित करना चाहता है, तो वह भी लिट् लकार का प्रयोग कर सकता है । जैसा कि किं त्वं कलिङ्गेषु प्रस्थितोऽसि ? ( क्या आप कभी कलिङ्ग देश में गये है ? ) ऐसा प्रश्न पूछे जाने पर, वक्ता इस घटना अपने जीवन काल में कभी घटी ही नहीं है ऐसा अभिव्यक्त करने के लिए लिट् लकार का प्रयोग करता है नाहं कलिङ्गान् जगाम ॥। यहाँ उत्तमपुरुष (अहम् ) के साथ 'जगाम' जैसे परोक्षभूतकाल का प्रयोग क्रिया की अत्यन्त अपह्नुति व्यक्त करता है ॥
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14.
१-३-५५ इत्यत्र महाभाष्यम् ॥ (Vol. I) BORI, p. 284.
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