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[77] की ‘भ' संज्ञा का विधान किया है । परन्तु यहाँ वार्त्तिककार कहते है कि नभोऽङ्गिरोमनुषां वत्युपसंख्यानम् । ( वा० ३ ) अर्थात् नभस्, अङ्गिरस् एवं मनुष् शब्द की भी 'भ' संज्ञा होती है; जब वकारादि / - वत् / प्रत्यय पर में रहे तब भी । नभस्वत् । अङ्गिरस्वत् ॥ यहाँ सूत्रकार से वकारादि / - वत् / प्रत्यय का परिगणन छुट गया था; जिसको वार्त्तिककारने पूर्ण कर दिया है ।
(२) 'अष्टाध्यायी' में कतिपय स्थान ऐसे है कि जहाँ सूत्रकार ने सामान्यरूप से ही प्रत्ययविधान किया होता है; वहाँ अर्थनिर्देश नहीं किया होता है । अथवा कालान्तर में अर्थसंकोच या अर्थपरिवर्तनादि हो जाने के कारण निश्चित या नया अर्थनिर्देश करना जरूरी बन जाता है । यथा अश्व-क्षीर- वृष- लवणानाम् आत्मप्रीतौ क्यचि । ७१–५१ सूत्र से / - क्यच् / प्रत्यय परमें रहते 'असुक्' आगम का विधान किया गया है । परन्तु वार्त्तिककार यहाँ कहते है कि अश्व - वृषयोमैथुनेच्छायाम् (वा० १) । अर्थात् जहाँ पर "वडवा (अश्वा) अश्वम् मैथुनाय इच्छति " ऐसा अर्थ व्यक्त करना अभीष्ट होगा तब 'असुक्' आगम हो कर ' ( वडवा) अश्वस्यति' । जैसा रूप सिद्ध होगा । परन्तु जब 'देवदत्तः आत्मनः अश्वम् इच्छति' । ऐसा अर्थ व्यक्त करना होगा तब केवल क्यजन्त रूप 'देवदत्तः अश्वीयति ।' ही बनेगा || इसी तरह का एक दूसरा उदाहरण है :- गुप्तिकिद्भ्यः सन् । ३-१-५ सूत्र से जो / - सन्/ प्रत्यय का विधान किया गया है, उसमें कोई विशेषार्थ का निर्देश सूत्रकारने किया ही नहीं है । परन्तु यहाँ काशिकाकार ने एक वार्त्तिक उद्धृत किया है : निन्दा - क्षमा-व्याधिप्रतीकारेषु सन्निष्यतेऽन्यत्र यथाप्राप्तं प्रत्यया भवन्ति । अर्थात् (१) ( गुप् (गोपने ) धातु से जो 'सन्' प्रत्यय होगा, वह निन्दा अर्थ में होगा जुगुप्सते । (२) तिज् निशाने धातुसे 'क्षमा' अर्थ में 'सन्' होगा :- तितिक्षते । (३) कित निवासे धातु से 'व्याधिप्रतीकार' अर्थ में 'सन्' प्रत्यय होगा चिकित्सते ।
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(३) वार्त्तिककार के द्वारा जो तीसरे प्रकार के अनुक्तचिन्ता - प्रवर्तक वार्त्तिक लिखे गये है, वह निम्नोक्त है :- हेतौ । २-३-२३ सूत्र से निर्व्यापार 'हेतु' वाचक
दण्डेन घट: । विद्यया यशः । इत्यादि ॥ अशिष्टव्यवहारे दाणः प्रयोगे चतुर्थ्यर्थे
शब्द से तृतीया विभक्ति होती है । यथा इस पर वार्त्तिककार कहते है कि
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