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[761 व्याकरण में सम्भाषण-सन्दर्भो का भी उल्लेख करे ? सम्भव है कि किसी के मन में यह अपेक्षा हद से बाहर की लगे । अर्थात् सम्भाषण-सन्दर्भ की भी चर्चा करना व्याकरण के कार्यक्षेत्र में नहीं आता है ऐसा अभिप्राय स्वाभाविक लगता है ।
परन्तु पाणिनि का व्याकरण शब्दनिष्पादक तन्त्र होने के साथ साथ, वर्णनात्मक प्रकार का भी व्याकरण है । अतः यह आवश्यक है कि वह अपने व्याकरण में सम्भाषण-सन्दर्भो का भी निर्देश करते रहे । 'अष्टाध्यायी' के कतिपय सूत्रों में जहाँ सम्भाषण सन्दर्भ उल्लिखित हुआ है, वे सूत्र इस प्रकार है :
(१) नादिन्याक्रोशे पुत्रस्य । ८-४-४८ (२) प्रत्यभिवादे चाऽशूद्रे । ८-२-८३ (३) हेत क्षियायाम् । ८-१-६० (४) प्रहासे च मन्योपपदे मन्यतेरुत्तम एकवच्च । १-४-१०६ (५) यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्घसामसु । १-२-३४ (६) तुह्योस्तातङ्ङाशिष्यन्यतरस्याम् । ७-१-३५ (७) लुप-सद-चर-जप-जभ-दह-दश-गृभ्यो भावगर्हायाम् । ३-१-२४ इत्यादि ।
उपर्युक्त सभी सूत्रों में, वक्ता-श्रोता के बीच में एक विशिष्टार्थ या मनोगत विशिष्ट भावना व्यक्त करने का सन्दर्भ प्रकट रूप से निर्दिष्ट है । प्रत्यभिवादन, हास-परिहास, यज्ञकर्म, या आशीर्वाद-प्रदान करने की परिस्थिति तब ही होती है कि जहाँ वक्ता-श्रोता का महोल हो, और उन दोनों के बीच कुछ विशेष सम्भाषण-सन्दर्भ खड़ा हुआ हो । ऐसी स्थिति में भाषाकीय स्तर पर विशिष्ट शब्दावली या प्रत्ययादि का चयन किया जाता है ।। 2.0 अनुक्तचिन्ता-प्रवर्तक वार्तिक का त्रैविध्य : ____ कात्यायन के अनुक्तचिन्ता-प्रवर्तक वार्तिकों का अध्ययन करने से मालुम पड़ता है कि वे तीन प्रकार के होते हैं । यथा - (१) सूत्रकार के द्वारा जो शब्द (प्रातिपदिक) या प्रत्ययादि का परिगणन नहीं किया गया
है, उसका निर्देश वार्तिककार करते है। उदाहरण के लिए - सूत्रकार ने यचि भम् । १-४-१८ सूत्र से यकारादि एवं अजादि प्रत्यय पर में रहते पूर्व में आये हुए शब्द
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