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________________ [59] से मालुम होता है कि इन्द्र मूल में युद्ध के देवता थे, उसके बाद वह वृष्टि के देवता बनाये गये, और अन्ततोगत्वा वह परमात्मा स्वरूप से भी वर्णित किये गये हैं । अतः शरीर में स्थित चैतन्य स्वरूप आत्मा को भी 'इन्द्र' कहा गया है । दूसरी और 'लिङ्ग' शब्द का अर्थ होता है:- लीनम् अर्थम् गमयति इति लिङ्गम् । लीन अर्थ को जो बताता है वह 'लिङ्ग' है । अर्थात् शरीर में छीपे हुए आत्मा का अस्तित्व इन्द्रिय से अनुमित होता है । अतः ‘इन्द्रियम्' शब्द का प्रथम अर्थ होता है:- इन्द्रस्य लिङ्गम् । काशिकाकार कहते है कि - "इन्द्रः आत्मा । स चक्षुरादिना करणेन अनुमीयते; न अकर्तृकं करणम् अस्ति ।24 चक्षु, श्रोत्रादि 'करण' (= साधन) कहे जाते है, और कर्ता के बिना करण का होना असम्भव है । करण से (इन्द्रिय से) कर्ता का (आत्मा का) अनुमान होता है । अतः जो इन्द्र की (अर्थात् आत्माकी) लिङ्ग होती है, वह 'इन्द्रिय' कहलाती है । यहाँ पर 'इन्द्र' शब्द को, ‘इन्द्रस्य लिङ्गम्' इस अर्थ को प्रकट करने के लिए, /-घच्/प्रत्यय जुड़ता है, जिस से 'इन्द्रियम्' शब्द सिद्ध हो सकता है । इन्द्र + पच् → झ्य = 'इन्द्रियम्' । 'निरुक्त' के दशम अध्याय में 'इन्द्र' शब्द के जो विभिन्न निर्वचन दिये गये है, वह इन्द्र को प्राधान्येन वृष्टि के देवता के रूप में ही वर्णित करते है ।25 परन्तु पाणिनि पूर्वोक्त सूत्र (५-२-९३) में उत्तरवर्ती काल में विकसित दार्शनिक अर्थवाले 'इन्द्र' शब्द को लेकर, घच् प्रत्यय का विधान करते है, और 'इन्द्रिय' शब्द की सिद्धि बताते है । पाणिनि ने इन्द्र का वृष्टि देवतारूप व्यक्तित्व, जो कि वेदोक्त माइथोलोजीकल व्यक्तित्व है, उसका निर्देश पूर्वोक्त सूत्र में नहीं किया है । परन्तु तद्उत्तरवर्ती काल का दार्शनिक स्वरूप ध्यान में लेते हुए इन्द्रलिङ्गम्, इन्द्रसृष्टम् इत्यादि कहा है । यद्यपि इस सन्दर्भ में, एक विशेष स्पष्टता यह भी करनी होगी कि - 'इन्द्र' शब्द का दार्शनिक स्वरूप उल्लिखित करने वाले पाणिनि ने इन्द्र के वेदोक्त एवं पौराणिक पुराकथाशास्त्रीय व्यक्तित्वों को भी एक अन्य सूत्र में निर्दिष्ट किये है :- ब्रह्मभ्रूणवृत्रेषु क्विम् । ३-२-८७ सूत्र से कहा है कि – 'ब्रह्म', 'भ्रूण' एवं 'वृत्र' शब्द उपपद में रहे तब / हन् 24. द्रष्टव्याः काशिकावृत्तिः (चतुर्थो भागः), पृ. २०१. 25. इन्द्र इरां दृणाति इति, वेरां ददातीति..... (निरुक्तम्-१०) अत्र दुर्गः – इन्द्रः कस्मात् । इरां दृणाति इति वा । इराम् अन्नं व्रीह्यादि, दृणाति विदारयति, .....वर्षक्लेदितमङ्करं बीजं भिनत्ति, तमिन्द्रकारितम्, सोऽयम् इरादारः सन् इन्द्रः ॥ - निरुक्तम् (चतुर्थो भागः) गुरुमण्डल ग्रन्थमाला, कलकत्ता, 1953, p. 963. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002635
Book TitlePaniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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