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________________ [58] करना हो तो । यथा - स्वयं ह रथेन याति ३, उपाध्यायं पदातिं गमयति । कोई छात्र स्वयं मोटरयान से जाता है और अपने गुरु को पैदल भेजता है, तो ऐसे धर्मव्यतिक्रम को, आचारभेद को 'क्षिया' कहते है। ऐसी स्थिति को उद्घाटित करने के लिए जो पहली तिङ्विभक्ति याति ३ है वह सर्वानुदात्त निघात नहीं होती है; और साथ में क्षियाशी:प्रेषैषु तिङ्काङ्क्षम् । (८-२-१०४) से उस 'याति' तिङन्त पद में प्लुत भी होता है । यहाँ पर भी पाणिनि ने 'क्षियायाम्' जैसा सप्तम्यन्त पद रखकर, एक विशिष्ट संभाषण सन्दर्भ रूप अर्थ का निरूपण किया है । उदाहरण - (३) सामान्य रूप से लोट् लकार विध्यादि अर्थों का विधान करता है । परन्तु पाणिनि तुह्योस्तातङ्डाशिष्यन्यतरस्याम् । ७-१-३५ सूत्र से "आशीर्वाद अर्थ में -तु/ एवं /-हि/ के स्थान में (विकल्प से) तातङ् आदेश होता है" ऐसा कहते है । यथा - "जीवतु भवान् । जीव त्वम् ।" के स्थान में "जीवतात् भवान् । जीवतात् त्वम् ।" ऐसा प्रयोग (भी) होता है । आशीर्वाद से भिन्न जब केवल आज्ञा का अर्थ होगा, वहाँ 'ग्राम गच्छतु भवान् ।' ही होगा, यहाँ 'गच्छतात्' कदापि नहीं होगा । इस सूत्र में 'आशिषि' ऐसा सप्तम्यन्त पद है । संभाषण सन्दर्भ में यदि आशिष् का भाव प्रकट करना अभीष्ट होता है, तब /-तातङ्। प्रत्यय ही कामयाब होता है - ऐसा पाणिनि ने उल्लिखित किया है । 2.3.4 पुराकथाशास्त्रीय (माइथोलोजीकल) एवं दार्शनिक अर्थों का प्रदर्शन : ___पाणिनि ने सामाजिक, सांस्कृतिक, संभाषणसन्दर्भादि रूप विभिन्न अर्थों का प्रदर्शन करने के साथ साथ कतिपय स्थानों पर एक ही शब्द के साथ जुड़े हुए पुरा कथाशास्त्रीय एवं दार्शनिक अर्थों का भी प्रदर्शन किया है। उदाहरण रूप से - इन्द्रियम् इन्द्रलिङ्गम् – इन्द्रदृष्टम् - इन्द्रसृष्टम् - इन्द्रजुष्टम् - इन्द्रदत्तम् इति वा । ५-२-९३ इस सूत्र से कहा गया है कि "इन्द्रियम्" ऐसा अन्तोदात्त स्वरवाला शब्द निपातन से सिद्ध होता है; और वह शब्द 'इन्द्रस्य लिङ्गम्', 'इन्द्रेण दृष्टम्', 'इन्द्रेण सृष्टम्', 'इन्द्रेण जुष्टम्', 'इन्द्रेण दत्तम्' इत्यादि जैसे अर्थो में प्रयुक्त होता है । वृत्तिकार यहाँ कहते है कि इतिकरणः प्रकारार्थः । सति सम्भवे व्युत्पत्तिरन्यथापि कर्तव्या । अर्थात् 'इन्द्रेण दुर्जयम्' [आत्मा से जो जितना मुश्कील है, वह "इन्द्रिय" है ।] जैसे अनुल्लिखित अर्थ में भी 'इन्द्रिय' शब्द का प्रयोग देखा जाता है । अध्यात्मशास्त्र में शरीर, इन्द्रिय, आत्मा इत्यादि विषयों की चर्चा प्राप्त होती है । वेद की मन्त्रसंहिताओं में इन्द्र देवता प्रथमपंक्ति के देवता तो है ही, परन्तु कुत्रचित् उसको परमेश्वर का, परमात्मा का वाचक भी वर्णित किया गया है । इन्द्र के पुराकथाशास्त्रीय अध्ययन करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002635
Book TitlePaniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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