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________________ ( द्वितीया ) । २-३-५ ॥ धातोः कर्मणः समानकर्तृकाद् इच्छायां वा (सन्) । ३–१–७ इन सूत्रों में आये हुए सभी सप्तम्यन्त पद वैषयिक सप्तमीवाले हैं; और पाणिनि ने अर्थनिर्देश करने के लिए ही उनको रखा है । वा तिङन्त पद की सिद्धि में लडादि प्रत्ययों के पूर्व में जो धातुरूपा प्रकृति रहती है, उसको क्रियावाचिका मानी गई है । भूवादयो धातवः । १-३ - १ सूत्र पर वृत्तिकार कहते हैं क्रियावाची भू इत्यादि की धातुसंज्ञा होती है । परन्तु किस धातु का क्या अर्थ है; अर्थात् अमुक धातु जिस अर्थ को व्यक्त करती है उसका ज्ञान कहाँ से होता है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर, (जैसा कि डॉ. जोहानीस ब्रोन्खोर्स्टने बताया है) पाणिनि ने अपने धातुपाठ में प्रत्येक धातु का अर्थ प्रदर्शन किया ही है । उदाहरण भू सत्तायाम् । गम्लृ गतौ । डुकुञ् करणे । इत्यादि । यहाँ पर प्रत्येक अर्थवाचक शब्द को भी पाणिनिने सप्तमी विभक्ति में रखा है । अत: 'भू सत्तायाम्' का अर्थ होगा कि सत्ता अर्थ में 'भू' धातु का प्रयोग होता है । यानें रूपसाधनिका के प्रथम चरण में ही, अर्थनिर्देश पुरस्सर ही प्रकृति + प्रत्यय की स्थापना की जाती है । इस तरह पाणिनि ने अपने शब्दनिष्पादक तन्त्र में कौशगत अर्थ एवं व्याकरणिक अर्थों को आरम्भबिन्दु पर रखे है । 2.2.2 विशिष्टार्थों का प्रदर्शन : पाणिनि ने शब्दनिष्पादक तन्त्र में लिङ्ग-वचनादि रूप व्याकरणिक अर्थों को आरम्भबिन्दु पर स्थापित करने के साथ साथ, भाषाकीय स्तर पर प्रतिबिम्बित होनेवाले वक्ता के कतिपय मानसिक भावों या मनुष्य के विशिष्ट स्वरूपों का प्रवर्तन इत्यादि विशिष्ट अर्थ भी भाषाकीय स्तर पर जो प्रतिबिम्बित होते है, उनका भी प्रदर्शन किया है । उदाहरण के स्वरूप में देखें तो [50] — Jain Education International - (१) सुप्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये । ३-२-७८. " जाति वाचक न हो ऐसा कोई शब्द उपपद में रहो और 'ताच्छील्य' अर्थ गम्यमान रहे तब, धातुसे पर में /- णिनि / प्रत्यय होता है ।" :- उष्णं भोक्तुम् शीलम् अस्य इति उष्णभोजी ॥ उष्ण + भुज् + णिनि - उष्णभोजिन् ॥ यहाँ पर 'ताच्छील्य' रूप अर्थ व्यक्त करने के लिए /- णिनि / प्रत्यय का विधान किया गया है । कोई व्यक्ति लम्बे समय से केवल, उष्ण भोजन करने का ही आदी हो, तभी उसको 'उष्णभोजी' कहा जाता है । परन्तु अन्य व्यक्ति कभी कभी उष्ण भोजन करले और उसका आदी न हो तो वहाँ पर 'उष्णं भुङ्क्ते कदाचित् ।' ऐसा ही तिङन्त प्रयोग होता है । यहाँ पर विशिष्टार्थ के अभाव में, रूपभेद हो जाता है ऐसा पाणिनि ने बताया है । - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002635
Book TitlePaniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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