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[44] प्रक्रिया के आरम्भबिन्दु पर ही रखा गया है, और उसके बाद उन्हीं अर्थों का प्रकृति + प्रत्यय में परिवर्तन या संक्रमण किया जाता है - ऐसा बताया गया है वह वक्तृपक्ष से देखा जाय तो स्वाभाविक भी है, बल्कि वही स्वाभाविक है । दूसरे शब्दों में कहें तो पाणिनि ने वक्तृपक्ष से वाग्व्यवहार किस क्रम से शुरू होता है उसका सूक्ष्मेक्षिका से आकलन करके, उसी स्वाभाविक/ नैसर्गिक क्रम को शास्त्र में तान्त्रिक-क्रम से परिवर्तित कर दिया है ! इसी बात को भर्तृहरिने भी 'वाक्यपदीय' में कहा है :
वितर्कितः पुरा बुद्धया क्वचिद् अर्थे निवेशितः ।
करणेभ्यो विवृतेन ध्वनिना सोऽनुगृह्यते ॥ (वा. प. १-४७) "आरम्भ में बुद्धि के द्वारा (स्फोट रूप नित्यशब्द को) किसी (विवक्षित) अर्थ में निवेशित किया जाता है (= स्फोटरूप नित्यशब्द का किसी अर्थ के साथ तादात्म्य सिद्ध किया जाता है); बाद में ताल्वादि उच्चारण स्थानों से विवृत (उच्चरित) किये गये ध्वनिओं से वह (विवक्षित अर्थ) अनुगृहीत किया जाता है (अर्थात् व्यक्त किया जाता है) ।'१०
संक्षेप में कहें तो - पाणिनि ने अपने शब्दनिष्पादक-तन्त्र में अर्थतत्त्व को जो आरम्भबिन्दु पर रखा है, वह वक्तृपक्ष की दृष्टि से स्वाभाविक भी है । यह बात पाणिनि की महिमा की द्योतक है। 2.0 'अर्थ' का स्वरूप : 2.1.1 'अर्थ' शब्द का निर्वचन : _ 'निरुक्त' वेदाङ्ग में 'अर्थ' शब्द का निर्वचन करते हुए यास्कने लिखा है कि - अर्थोऽर्तेः । अरणस्थो वा । (निरुक्तम् १-६-१८). (१) ऋगतौ धातु से 'अर्थ' शब्द बना है । अर्थात् जो जाता है (निकलता है) वह 'अर्थ' है । (२) दूसरे निर्वचन के अनुसार - जो (किसी के) जाने के बाद भी खड़ा रहता है; वह 'अर्थ' है ।।। दोनों ही निर्वचनों का तात्पर्यार्थ स्पष्ट करते हुए टीकाकार दुर्गने लिखा है कि - अर्थोऽर्तेः गतिकर्मणः । अर्थ्यते ह्यसावर्थिभिः । 10. वाक्यपदीयम् । प्रथमो भागः (स्वोपज्ञसहितम्), सं. रघुनाथ शर्मा, प्रका. सम्पूर्णानन्द संस्कृत
विश्वविद्यालयः, वाराणसी, १९७६ (पृ. ९४). 11. निरुक्तम् । (द्वितीयो भागः) गुरुमण्डल ग्रन्थमाला–१०, सं. मनसुखराय मोर, कलकत्ता,
१९५२, (पृ. १२४). (दुर्गस्य ऋज्वाख्यटीकया सहितम्) ।
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