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[43] चतुर्थ अर्थ की अभिव्यक्ति करने के लिए नव प्रत्ययों में से कोई एक प्रत्यय रखा जाता है । "राम चावल पकाता है" ऐसे वाक्य में राम की संख्या एक है, इस लिए एकवचन संज्ञक /-तिप्/ प्रत्यय को पच् धातु के बाद रखा जाता है ।। ____ अब अन्त में, 'पच् + तिप्' की साधनिका (= रूपप्रक्रिया) आगे बढाई जाती है। 'तिप्' प्रत्यय जो कर्तृकाक का वाचक है, उसका अनुवादक (या अङ्ग संज्ञासाधक) /-शप्-/ विकरण प्रत्यय दोनों के बीच में लगाया जाता है (कर्तरि शप् । ३-१-६८)। परिणाम स्वरूप “पच् + शप् + तिप् ।" में से → पच् + अ + ति → पचति । जैसे वाक्य की निष्पत्ति सम्पन्न होती है।
उपर्युक्त रूपप्रक्रिया का क्रमशः अवतार देखने पर मालूम होता है कि किसी भी तिङन्त पद से प्राप्त होने वाले (१. धात्वर्थ क्रिया, २. काल, ३. कर्तृ या कर्मकारक या भाव एवं ४. संख्यारूप) चारों अर्थों को पाणिनि ने प्रक्रिया के आरम्भ में ही रखा है । बाद में रूपप्रक्रिया क्रमशः आगे बढ़ती हुई, अन्त में लोक में प्रयोगार्ह हो ऐसे साधु वाक्य को निष्पन्न करके वक्ता के हाथ में रख देती है। इस साधनिका को एक उपमा के माध्यम से स्पष्ट करें तो - रसनिष्यन्दक-यन्त्र में इक्षुदण्ड (ईख) पहले रखा जाता है, जिसको in-put कहेंगे, बाद में यन्त्र को सञ्चालित करने पर दूसरी ओर ईखका रस बाहर निकल कर आता है; जिसको out-put कहेंगे । इसी तरह से पाणिनि ने भी अपने शब्दनिष्पादक तन्त्र (Generative grammar) में "अर्थ" को आरम्भबिन्दु पर ही, in-put के रूप में रखा है । एकबार अर्थवाचिका प्रकृति + प्रत्यय का निर्धारण/चयन हो जाने के बाद, उसी के उपर स्थान्यादेशभाव रूप प्रक्रिया के माध्यम से (परस्परान्वित) सुबन्त एवं तिङन्त पद रूप 'वाक्य' अन्तमें, out-put के रूप में, वक्ता के हाथ में आ जाता है । __पाणिनि ने धातुपाठ में जो (वैषयिक अधिकरणवाचक) सप्तम्यन्त पदों से धात्वर्थों का निर्देश किया है; और वर्तमाने लट् । ३-२-१२३ य द्व्येकयोविवचनैकवचने । १-४-२२ या बहुषु बहुवचनम् ।१-४-२१ जैसे वैषयिक अधिकरण वाचक सप्तम्यन्त पदवाले सूत्र लिखकर, रूपप्रक्रिया में भी सबसे पहले विभिन्न अर्थों का पुरस्कार किया है उससे यह सिद्ध होता है कि पाणिनि के तन्त्र में 'अर्थ' का स्थान रूपप्रक्रिया के आरम्भबिन्दु पर ही है। 1.4 वक्तृपक्ष में 'अर्थ' की संकल्पना आरम्भ में ही होनी स्वाभाविक है : __पाणिनि के शब्दनिष्पादक-तन्त्र में 'वाक्य' की निष्पत्ति (एवं वाक्यान्तर्गत-परस्परान्वित सुबन्त-तिङन्त पदों की युगपत् निष्पत्ति) बताई गई है । परन्तु उन में जो 'अर्थ' का स्थान 9. पाणिनीय तन्त्र में प्रथमान्त पद को छोड़कर किसी भी अन्य पद की एकाकी-निरपेक्ष
सिद्धि नहीं होती है। अतः पाणिनिने वाक्यसंस्कारपक्ष का व्याकरण लिखा है; पदसंस्कारपक्ष का व्याकरण नहीं - यह सिद्ध होता है ।
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