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[45] " धन की कामनावाले लोगों के द्वारा वह (धन) ले जाया जाता है ।" यहाँ पर दुर्गने 'अर्थ' शब्द का केवल 'धन' अर्थ ही लिया है । परन्तु स्कन्द - महेश्वरने लिखा है कि यस्तावत् शब्दस्यार्थः, स तस्माद् गम्यते । यो हिरण्यादिः सोऽप्यनादिना व्यवहारेणान्यस्मात् पुरुषाद् अन्यं गच्छति ।'2 अर्थात् – जो शब्द का अर्थ (Word meaning) है, वह शब्द (= ध्वनिश्रेणी) से निकलता है (= बाहर जाता है श्रोता को प्राप्त होता है) इसी लिए शब्दार्थ को 'अर्थ' कहते हैं । और जो सुवर्णादि रूप अर्थ (= धन) है, वह भी अनादिकाल से एक आदमी के पास से दूसरे आदमी के पास जाता है, इसी लिए उसको भी 'अर्थ' कहते हैं ।
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उपर्युक्त दूसरे निर्वचन को विशद करते हुए दुर्गने लिखा है कि - अरणस्थो वा । यदास्य स्वामी अरति गच्छति इतो लोकाद् अमुं लोकं, तदायम् इह एव तिष्ठति, न अनेन एव सह अमुं लोकं गच्छति, दीनारादिः अर्थः; तत्सामान्याद् इतरोऽपि शब्दार्थोऽर्थ उच्यते ॥ अर्थात् धन का जो स्वामी होता है उसके उपरत हो जाने के बाद भी, जो (धन) इस लोक से उस (स्वर्ग) लोक में नहीं जाता है, किन्तु यहीं पर रह जाता है इसी को "अर्थ" कहते हैं । जैसा कि 'दीनार' नामक जो धन ( के सिक्के) हैं, उन्हें 'अर्थ' कहते हैं । और इसी के साम्य पर शब्दार्थ को भी 'अर्थ' कहते हैं (क्योंकि वक्ता के द्वारा उच्चरित की गई ध्वनिश्रेणी का नाश हो जाने के बाद भी, श्रोता के मन में जो रह जाता है वह 'अर्थ' है ।) यहाँ पर ' अरणस्थो वा' जैसे निर्वचन का अर्थ अरणे गमने कृतेऽपि यः तिष्ठति, सः अर्थः । ऐसा किया गया है । 13
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उपर्युक्त दोनों ही निर्वचनों पर विचार करने पर तात्पर्यार्थ निकलता है (१) वैखरी वाणी से उच्चरित जो शब्द है (अर्थात् जो ध्वनिश्रेणी है) उसमें से अर्थ निकलता है; और (२) वह (अर्थ) श्रोता के मन में स्थिर रहता है । परन्तु यह दोनों ही निर्वचन और उनके फलितार्थ तो यही बताते हैं कि 'निरुक्त' वेदाङ्ग में 'अर्थ' का स्वरूप केवल श्रोतृपक्ष को 12. निरुक्तम् (स्कन्दस्वामिन् — महेश्वर), (अ० १-६) सं. लक्ष्मण सरूप, प्रका. महेरचंद लछमनदास, दिल्ली, १९८२.
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13. स्कन्द–महेश्वर ने भी दुर्गाचार्य जैसा ही व्याख्यान किया है। :- अरणं गमनं (= तिरोधानं ) शब्दस्य तावद् उच्चरितस्य तिरोधानं, तस्मिन् अर्थस्तिष्ठति, न शब्देन सह तिरोधीयते । इतरत्रापि गमनम् अरणं स्वामिनः तस्मिन् हिरण्यादिः अर्थः तिष्ठति । न स्वामिना सह गच्छति । (पृ. ११०)
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