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[39] अर्थनिर्देश करना आवश्यक माना है । और ऐसे अर्थनिर्देशों को उल्लिखित करने के लिए सप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया है । ऐसा अर्थनिर्देश करनेवाली सप्तमी "वैषयिक सप्तमी" होती है । __(पाणिनि ने अपने सूत्रों में परसप्तमी अर्थात् निमित्तसप्तमी, एवं वैषयिक सप्तमी का प्रयोग करने के साथ साथ एक तीसरी भावलक्षणा सप्तमी (सति सप्तमी) का भी प्रयोग किया है । उदाहरण के लिए कर्तृकर्मणोः कृति । २-३-६५. यहाँ पर 'कृति' ऐसा सति सप्तम्यन्त पद कहता है कि "वाक्य में कहीं पर भी कृदन्त शब्द का प्रयोग हो तब....." । अर्थात् यहाँ "कृदन्त शब्द अव्यवहित पर में रहे तब" ऐसा अर्थ नहीं होता है । प्रस्तुत चर्चा में, इन तीनों प्रकार के सप्तम्यन्त पदों में से केवल वैषयिक अधिकरण वाचक सप्तम्यन्त पद ही उपादेय हैं ।) 1.2.2 अर्थ-निर्देश के अन्य उपाय :
अर्थ-निर्देश के लिए पाणिनिने वैषयिक सप्तमीवाले पदों से अतिरिक्त जो एक अन्य उपाय का आश्रयण किया है वह 'इति' करण का प्रयोग है । जैसा कि - तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप् । ५-१-९४ सूत्र से 'अस्य अस्ति' एवं 'अस्मिन् अस्ति' ऐसे अर्थ को प्रकट करने की विवक्षा होती है, तब /-मतुप्/ प्रत्यय लगता है । यथा - (१) गावोऽस्य सन्ति = गोमान् देवदत्तः । (२) वृक्षाः अस्मिन् सन्ति = वृक्षवान् पर्वतः । यहाँ पर काशिकाकार कहते है कि - इतिकरणो विवक्षार्थः । इस प्रकार यहाँ पाणिनि ने इतिकरण से अर्थ-निर्देश किया है; वैषयिक सप्तमी का प्रयोग नहीं किया है ।
कहीं स्थान ऐसे भी है कि पाणिनि ने जहाँ अर्थनिर्देश की आवश्यकता ही नहीं समझी है । यथा - सत्यापपाश.........चुरादिभ्यो णिच् । ३-१-२५ 1.3 वाक्यनिष्पत्ति की प्रक्रिया का आरम्भ बिन्दु ही 'अर्थ' :
अब यह विवेचनीय है कि पाणिनीय व्याकरणतन्त्र में 'अर्थ' का स्थान कहाँ पर है ? 'वाक्य' का अपर पर्याय तिङन्त पद है। क्योंकि 'व्याकरण-महाभाष्य' में वाक्य का लक्षण देते हुए ‘एकतिङ् (वाक्यम्)" ऐसा लक्षण दिया गया है । एक तिङन्त पद में पूरा वाक्यार्थ संनिहित रहता है । अत: 'तिङन्त पद से कौन कौन से अर्थ प्राप्त होते हैं - ऐसा सोचने पर मालूम पड़ता है कि (१) धात्वर्थ (व्यापार एवं फल), (२) काल, (३) कर्तृकारक या कर्मकारक (या भाव) एवं (४) सङ्ख्या - ये चार अर्थ प्राप्त होते हैं । उदाहरणार्थ - 'देवदत्तः 6. समर्थः पदविधिः । (पा. सू. २-१-१) इत्यत्र वात्तिकम् । द्रष्टव्यम् व्याकरण-महाभाष्यम् ।
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