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[38] (क) अभिव्यापक अधिकरण, (तिलेषु तैलम्) (ख) औपश्लेषिक अधिकरण, (रामः कटे आस्ते) एवं
(ग) वैषयिक अधिकरण । - (ब्रह्मणि जिज्ञासा) __ (किसी के मत में 'सामीपक' नामका एक चौथा भी अधिकरण होता है । यथा-गङ्गायां घोषः । अन्य लोग इसे औपश्लेषिक अधिकरण के अन्तर्गत समाविष्ट कर लेते हैं ।) पाणिनि ने अपने सूत्रों में जहाँ-जहाँ सप्तम्यन्त पद रखे हैं उनमें प्रायः औपश्लेषिकाधिकरण वाचिका सप्तमी विभक्ति का ही प्रयोग किया है । उदा. इको यणचि । ६-१-७७, अतो गुणे ६-१-९७, वृद्धिरेचि । ६-१-८८ ॥ यहाँ पर 'अचि', 'गुणे' या ‘एचि' जैसे जो सप्तम्यन्त पद है, उसका अर्थघटन करने के लिए तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य ।१-१-६६ जैसा परिभाषासूत्र प्रवृत्त होता है और 'अचि' जैसे पदों में परसप्तमी (या निमित्तसप्तमी) है-ऐसा बोध कराता है । इसी को औपश्लेषिक सप्तमी (या सामीपक अधिकरण वाचिका सप्तमी) कहते हैं । परन्तु जब क्षय्यजय्यौ शक्यार्थे । ६-१-८१, सुष्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये । ३-२-७८, क्षयो निवासे । ६-१-२०१, षष्ठी चानादरे । २-३-३८ जैसे सूत्र आते हैं, और उनमें जो सप्तम्यन्त पद हैं वे वैषयिक अधिकरण के वाचक हैं । यहाँ क्षय्यजय्यौ शक्यार्थे । ६-१-८१ सूत्र से कहा जाता है - क्षेतुं शक्यं 'क्षय्यम्' और शक्यार्थ से भिन्न अर्थ व्यक्त करना अभीष्ट हो तो 'क्षेयम्' शब्द बनता है । यथा-क्षेतुं योग्यं क्षेयं पापम् । इसी तरह से क्षयो निवासे । ६-१-२०१ सूत्र कहता है कि - "निवास' रूप अर्थ का अभिधान करना विवक्षित हो तब, वह शब्द आधुदात्त बनता है । यथा - क्षियन्ति निवसन्ति अस्मिन् इति 'क्षयः' । और 'निवास' से भिन्न अर्थ में वही शब्द अन्तोदात्त बनता है । जैसा कि - क्षयो वर्तते दस्यूनाम् । यहाँ पर विशिष्ट ध्वनिपरिवर्तन, पदरचना या स्वरवैषम्य बताने के लिए पाणिनिने अपने सूत्रों में 4. कर्तृकर्मव्यवहिताम् असाक्षाद् धारयत् क्रियाम् ।
उपकुर्वत् क्रियासिद्धौ शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम् ॥ उपश्लेषस्य चाभेदस्तिलाकाशकटदिषु । उपकारास्तु भिद्यन्ते संयोगिसमवायिनाम् ॥ (वा. प. ३-७-१४८, १४९) द्रष्टव्यः वाक्यपदीयम् (Kanda III, Part-I), Ed. K. A. Subramania Iyer, Pub. Deccan
College, Pune, 1963, (p. 348). 5. क्षय जागृहि प्रपश्यन् । ऋग्वेदः (१०-११८-१). "तुम (अपने) घर में देखते हुए जागृत
रहो ।"
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