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[35] यह देखना होगा कि महर्षि पाणिनिने अपने 'अष्टाध्यायी' व्याकरणतन्त्र में अर्थतत्त्व को स्थान दिया है या नहीं ? और यदि अर्थतत्त्व को स्थान दिया है तो कहाँ दिया है, और उसका स्वरूप (विधायें) क्या है और उसका एक शब्दनिष्पादक तन्त्र (Machine) में क्या कार्य है ? इस प्रथम व्याख्यान में इन विषयों की आलोचना अभीष्ट है ।
1.0 पाणिनीय व्याकरणतन्त्र में 'अर्थ' का स्थान :
1. 1 पाणिनीय - व्याकरण का द्विविध स्वरूप :
सोस्युर नामक एक यूरोपीय भाषाविद्ने भाषामात्र के अध्ययन के लिए दो प्रकार की पद्धतियाँ बताई है उनका कथन है कि किसी भी भाषा को, जब उसकी ऐतिहासिक उत्क्रान्ति (परिवर्तन के विविध स्तर) के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है तब उसको historical lingistics (ऐतिहासिक भाषाविज्ञान) कहते हैं । दूसरे शब्दों में इसे diachronic approach भी कह सकते हैं । इससे भिन्न किसी निश्चित समय में प्रवर्तमान भाषा के स्वरूप की जब गवेषणा की जाती है, तब उसे non-historical linguistics कहते हैं । उसी को दूसरे शब्दों में Synchorinic approach भी कहा जाता है 12
C
-
A
B
प्रस्तुत चित्र में C-D को एक बाण के निशान से जोड़ा गया है, जो यह बताता है कि भाषा एक सतत परिवर्तनशील जीवन्त माध्यम है । काल के अनन्त प्रवाह में, किसी एक भाषा में जो जो परिवर्तन आते हैं उन्हीं का यहाँ अध्ययन किया जाता है । परन्तु A-B बिन्दुओं से यह सूचित करना अभीष्ट है कि अनन्त समय के किसी एक निश्चित अवधि पर (निश्चित कालखण्ड में) किसी एक भाषा का स्वरूप कैसा था ? इस बात का अध्ययन अभीष्ट
है । यहाँ पर यह भी स्मर्तव्य है कि भाषा की उत्क्रान्ति का (CD 'डायक्रोनिक' अभिगम से) अध्ययन करने से पहले, किसी भी भाषावैज्ञानिक को A - B प्रकार के 'सिन्क्रोनिक' दृष्टिकोण से अध्ययन करना अतीव आवश्यक है, क्योंकि पहले यह निश्चित हो जाना जरूरी है कि अनन्त समय में, निश्चित कालबिन्दु पर कोई एक भाषा अमुक स्वरूप की थी। फिर उस के बाद ही
2. द्रष्टव्य: Course in General Linguistics : by Ferdinand de Saussure (1857-1913).
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