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किन्तु महर्षि पाणिनि -प्रणीत व्याकरणतन्त्र का अनुशीलन करने से यह ज्ञात होता है कि 'व्याकरण' शब्द का अर्थ 'पृथक् क्रियन्ते' नहीं है । यहाँ तो 'व्याक्रियन्ते' शब्द का अर्थ “निष्पाद्यन्ते व्युत्पाद्यन्ते संसाध्यन्ते शब्दा अनेन इति व्याकरणम् ।" - ऐसा ही सङ्गत होता है । अर्थात् पाणिनिविरचित व्याकरणतन्त्र में तो प्रकृति + प्रत्यय का सम्मेलन करके, किस तरह से नामपद (सुबन्त) एवं क्रियापद ( तिङन्त) के रूपों की सिद्धि निष्पत्ति की जाती है यह बताया जाता है । संक्षेप में कहा जाय तो इस पाणिनीय व्याकरणतन्त्र में पदों का पृथक्करण प्रस्तुत नहीं हुआ है, बल्कि प्रकृति + प्रत्यय के संयोजन की प्रक्रिया ही सिखाई गयी है । जैसे – राम कुल्हाड़ी से वृक्ष को काटता है । यहाँ 'कुल्हाड़ी नामक एक वस्तु' + 'उसकी साधकतम साधन के रूप में प्राप्त होनेवाले साहाय्य' अर्थ को व्यक्त करने का प्रसङ्ग / विवक्षा होने पर वस्तुवाचक प्रकृति के रूप में 'कुठार' शब्द का चयन किया जाता है । और 'साधकतम साधन' रूप अर्थ व्यक्त करने के लिए /-टा / ऐसा प्रत्यय लिया जाता है । उसके बाद, प्रकृति + प्रत्यय में आवश्यक ध्वनिपरिवर्तन का निरूपण किया जाता है; फिर तृतीय स्तर पर दोनों अंशों का संयोजन करके, "कुठारेण" (सुबन्त) पद की सिद्धि होती है । इस से यह प्रतीत होता है कि पाणिनीय व्याकरण की आकृति उल्टे त्रिकोण जैसी है !
(प्रकृति) कुठार + टा (प्रत्यय)
आवश्यक ध्वनिपरिवर्तन
कुठार + इन
गुण
कुठारेन कुठारेण
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इस तरह से सोचने पर मालूम होता है कि पाणिनीय व्याकरण कोई पृथक्करण (Analysis) की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि वह संयोजन ( Synthesis) की प्रक्रिया है ॥
0.2 'व्याकरण' का प्रतिपाद्य :
किसी भी भाषा के व्याकरण में कुल मिलाकर चार वर्ण्य विषयों का समावेश होता है ! जैसे (१) ध्वनि (स्वर - व्यञ्जन), (२) पद (नामपद - क्रियापद), (३) वाक्य एवं (४) अर्थ । इनमें से प्रथम तीन वर्ण्य विषय साधनकोटि में आते हैं और चतुर्थ विषय साध्यकोटि
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