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पाणिनीय व्याकरणतन्त्र में 'अर्थ' का स्थान, स्वरूप एवं कार्य
(द्वितीय-व्याख्यान) येन धौता गिरः पुंसां विमलैः शब्दवारिभिः ।
तमश्चाज्ञानजं भिन्नं तस्मै पाणिनये नमः ॥ 0.0 भूमिका : 0.1 'व्याकरण' शब्द का अर्थ एवं पाणिनीय व्याकरण का स्वरूप
वि + आ उपसर्गपूर्वक कृ (क़रणे) धातु को 'करण' अर्थ में ल्युट् (अन) प्रत्यय जोड़ने से 'व्याकरण' शब्द निष्पन्न होता है । व्युत्पत्ति की दृष्टि से देखा जाय तो "व्याक्रियन्ते (= पृथक् क्रियन्ते) शब्दा अनेन इति व्याकरणम् ।" अर्थात् जिस के द्वारा पदों के प्रकृति
और प्रत्यय को पृथक्कृत करके दिखाया जाता है, उसे 'व्याकरण' कहते हैं । उदाहरण के लिए - भवति क्रियापद में भू सत्तायाम् धातु (प्रकृति) है, और उसको ‘कर्तृ' अर्थ में प्रथम पुरुष, एकवचन का परस्मैपदसंज्ञक 'ति' प्रत्यय लगा है। रामेण जैसे नामपद में हुस्व अ कारान्त पुंलिंग राम प्रातिपदिक (प्रकृति) को कर्तृकारक या करण कारकार्थ में तृतीया विभक्ति एकवचन का टा → इन प्रत्यय लगा है - इसतरह से पदों के प्रकृति-प्रत्यय को अलग करके प्रदर्शित करना 'व्याकरण' कहलाता है । 'व्याकरण' शब्द का यह व्युत्पत्तिजन्य अर्थ सूचित करता है कि किसी भी व्याकरणतन्त्र की आकृति एक (खड़े) त्रिकोणाकार जैसी होनी चाहिए :
+
राम (प्रकृति)
इन (प्रत्यय)
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