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[17] 2.1.1 कृद् रूपा वृत्ति (कृदन्त रचनायें) :
पाणिनीय व्याकरण-तन्त्र के पूर्वगोलार्ध के सूत्रों से - (देवदत्तः) कुम्भं करोति । जैसा कोई वाक्य निष्पन्न हो जाता है । आप चाहें तो, इस 'वाक्य' को तन्त्र से बाहर निकाल कर भाषा में उसका प्रयोग कर सकते हैं । परन्तु यदि आप 'कुम्भं करोति' जैसे दो शब्दों से अभिव्यक्त होनेवाला अर्थ कोई एक ही शब्द से व्यक्त करना चाहते हैं; या वही अर्थ 'देवदत्त' कारक का विशेषण बनाकर नये वाक्य में प्रयुक्त करना चाहते हैं (यथा - अहं . कुम्भकाराय देवदत्ताय धनं ददामि ।) तो "कुम्भं करोति" जैसे पदों पर, उत्तरगोलार्ध में निर्दिष्ट (पदोद्देश्यक) विधियाँ प्रवृत्त होती हैं । यथा :- कुम्भं करोति ।
लौकिक विग्रह वाक्य (= कुम्भ + अम् + कृ + लट्)
अलौकिक विग्रह वाक्य कुम्भ + ङस् + कृ + अण् ॥ __ 'उपपद' संज्ञा
(१) तत्रोपपदं सप्तमीस्थम् । ३-१-९२ से
'कुम्भम् = कुम्भस्य' उपपदसंज्ञक बनता
कुम्भ + ङस् + V कृ + अण्
(धातु) । - ‘कृत्' संज्ञक
प्रत्यय कुम्भ + ङस् + कृ + अ(ण)
(२) कर्मण्यण । ३-२-१ सूत्र से कर्मवाचक
शब्द उपपद में रहे तब, धातु से |. -अण्/ प्रत्यय लगता है ।
(३) अचो णिति । ७-२-११५ से, णित्
प्रत्यय परे रहते वृद्धि होती है । (ऋ > आर्)
वृद्धि क् आर् +
-
अ०
9. यहाँ कर्तृकर्मणोः कृति । २-३-६५ से, 'कुम्भम्' जैसे कर्मकारक वाचक पद में षष्ठी
विभक्ति का प्रयोग करना आवश्यक है । क्योंकि अब कृदन्त रचना में, 'करोति' के स्थान पर 'कृ + अण् = कार' का प्रयोग होनेवाला है ।
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