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[18] कुम्भ + ङस् + कार
(४-१) प्राक्कडारात्समासः । २-१-३ के
'अधिकार' में - उपपद कृत्प्रत्ययान्त
| (४-२) उपपदम् अतिङ् । २-२-१९ से, उपपद-समास (संज्ञा)
उपपद सुबन्त का समर्थ पद के साथ
समास होता है । कुम्भ + ङस् + कार | (५) कृत्तद्धितसमासाश्च । १-२-४६ से, 'प्रातिपदिक' संज्ञा
'समास' की प्रातिपदिक संज्ञा होती है। कुम्भ + ० + कार
(६) सुपो धातुप्रातिपदिकयोः । २-४-७१
से, 'प्रातिपदिक' के अवयवभूत 'सुप्'
प्रत्यय का लुक् होता है। = कुम्भकार ॥
(७) कृदन्त शब्द की सिद्धि पूर्ण हुई ॥ यहाँ दो-तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं : (क) पञ्चधा वृत्ति के प्रसङ्ग में पाणिनि ने “विग्रह वाक्य' को अन्तःस्तरीय रचना के रूप
में स्वीकार किया है । यहाँ विग्रहवाक्य को ही रूपान्तरित करके एक नये शब्द के रूप में परिवर्तित करने की प्रक्रिया का पुरस्कार किया गया है । __ यहाँ आरम्भ में 'कुम्भं करोति' जैसा जो विग्रह वाक्य लिया जाता है, उसमें एक सुबन्त-पद है, तो दूसरा तिङन्त-पद है। अतः इन दो 'पदों' को उद्दिष्ट करके कर्मण्यण् । ३-२-१ इत्यादि सूत्रों से जो विधियाँ होती हैं, उन्हें ही "पदोद्देश्यकविधियाँ" कही
जाती है । . ख) उपर्युक्त कृदन्त-रचना में, जो रूपान्तरण के नियम है वह – (१) तत्रोपपदं सप्तमीस्थम् ।
(२) कर्मण्यण् । (३) उपपदमतिङ् । (४) कृत्तद्धितसमासाश्च । (५) एवं सुपो धातु
प्रातिपदिकयोः । हैं । (ग) यहाँ "देवदत्तः कुम्भं करोति' → में से 'देवदत्तः कुम्भकारः ।" हो जाने पर; अर्थात्
तन्त्र के उत्तर गोलार्ध के सूत्र प्रवृत्त हो जाने के बाद, व्याकरणतन्त्र की कार्यप्रणालि पूर्ण हो जाती है - ऐसा भी नहीं है ! यही 'कुम्भकार' जैसा कृदन्त-प्रातिपदिक तैयार हो जाने के बाद, कोई एक नये विवक्षित वाक्य में वह विशेषण रूप अर्थ बनकर
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