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1.3 वाक्यनिष्पत्ति हो जाने पर 'तन्त्र' का पूर्णविराम नहीं है :
अभी तक हमने जो चर्चा प्रस्तुत की है उसमें पाणिनीय व्याकरण तन्त्र में रूपाख्यान पद्धति के प्रमुख तीन बिन्दु हैं (१) रूपाख्यान पद्धति में, किसी भी 'पद' की साधनिका में (विवक्षित) "अर्थ" को आरम्भ बिन्दु पर ही (input के रूप में) स्थापित किया गया है । (२) नामपद या क्रियापद की रूपसिद्धि करने के लिए पाणिनि ने सर्व प्रथम प्रातिपदिक मात्र को लगनेवाले २१ साधारण 'सुप्' प्रत्यय एवं क्रियावाचक धातुमात्र को लगने वाले १८ 'तिङ्' प्रत्यय का परिगणन प्रस्तुत करने के बाद; स्थान्यादेश भाव की प्रयुक्ति से एक ही सामान्य विभक्त्यर्थ को अभिव्यक्त करनेवाले एक ही सामान्य प्रत्यय को अनेक उपप्रत्यय (उपरूपघटक) में परिवर्तित करके दिखाये हैं । और (३) पाणिनीय सूत्रों से केवल पूरे 'वाक्य' की ही निष्पत्ति हो सकती है । उसको हमने विशद किया है ।
परन्तु पाणिनीय सूत्रों से 'वाक्य' की निष्पत्ति हो जाने के बाद इस व्याकरण " तन्त्र" की गतिविधि पूर्ण नहीं हो जाती है । पाणिनि का व्याकरण - तन्त्र तो चक्रवत् निरन्तर घूमता हुआ एक 'तन्त्र' (Rotative Machine) है। अब तक इस तन्त्र की 'अर्थ' से लेकर वाक्यनिर्मिति पर्यन्त की जो कार्यप्रणाली बताई गई है, उससे एक पूर्ण गोलाकार का केवल पूर्वगोलार्ध ही बनता है । तद्यथा
1540
गो
ला
1. अर्थ ← (in-put)
2 कारकसंज्ञा
✓
3. विभक्तिविधान
4. नामपद + क्रियापद
5. सन्धि कार्य
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पाणिनीय
व्याकरण
तन्त्र
6. लोक में प्रयोगार्ह
वाक्य (out-put )
अथवा
विग्रह
वाक्य
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4
त्त
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गो
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र्ध
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