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[12] ही है, इसलिए Vहन् + तिप् (एकवचन संज्ञक) प्रत्यय लिया जाता है। (वयेकयोर्दिवचनैकवचने। १-४-२२ से) । जिस से 'हन्ति' पद की सिद्धि सम्पन्न होती है । ___यहाँ पर, Vहन् + तिप् में आये हुए 'तिप्' से 'कर्तृकारक' रूपी अर्थ उक्त (अभिहित) है – ऐसा हमने सब से पहले विवक्षा से ही निश्चित कर लिया था, इसलिए अनभिहिते । २-३-१ के अधिकार में आये हुए कर्तृकरणयोस्तृतीया । २-३-१८ से, 'राम' के पश्चात् कर्तृकारकार्थ वाचिका तृतीया विभक्ति उत्पन्न नहीं होती है । बल्कि कर्तृकारक रूपी अर्थ उक्त होने से, केवल प्रातिपदिकार्थ को प्रकट करनेवाली प्रथमा विभक्ति ही, प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा । २-३-४६ से प्रवृत्त होगी ।
राम + सु → रामः (रावणं बाणेन) हन्ति ॥
इस तरह से यह सुस्पष्ट है कि पाणिनि ने सुबन्त एवं तिङन्त पदों की रूपसिद्धि परस्पर सापेक्ष बताई है । इन दोनों की बुनावट ही ऐसी है कि एक के बिना दूसरे की रूपसिद्धि आगे ही नहीं बढ़ सकती है । दूसरे शब्दों में कहे तो पाणिनि ने वाक्य की निष्पत्ति की जो तान्त्रिक व्यवस्था -
१. कारके । १-४-२३, २. अनभिहिते । २-३-१, ३. लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः । ३-४-६९ एवं ४. युष्मद्युपपदे समानाधिकरणे स्थानिन्यपि मध्यमः । १-४-१०५, अस्मद्युत्तमः ।
१-४-१०७ तथा शेषे प्रथमः । १-४-१०८ इन चार सूत्रों के द्वारा निर्धारित की है, इस व्यवस्था के अनुसार किसी भी वाक्य की निष्पत्ति में सुबन्त एवं तिङन्त पद परस्पर में अन्वित हों, एवं अविनाभाव से रहे हों तभी उनकी अवतारणा सम्भव है; अन्यथा नहीं । हाँ, यह जरूर कहना चाहिए कि पाणिनीय तन्त्र के माध्यम से केवल प्रथमान्त सुबन्त पद, किसी अन्य तिङन्त पद से निरपेक्ष रहकर भी निष्पादित किया जा सकता है । जबकि कोई भी तिङन्त पद एकाकी, अर्थात् सुबन्त निरपेक्ष, नहीं सिद्ध किया जाता । और इसलिए तो, प्रोफे. एस. डी. जोशी जैसे आधुनिक विद्वानों द्वारा पाणिनि "वाक्यसंस्कारपक्ष" का पुरस्कार करनेवाले वैयाकरण माने जाते हैं ।
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