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________________ [14] इस अर्ध गोलाकार में निर्दिष्ट कार्यों से जो 'वाक्य' की; और वाक्य के अन्तर्गत आनेवाले विविध सुबन्त एवं तिङन्त पदों की सिद्धि होती हैं, वे तो केवल "पदत्वसम्पादक" कार्य हैं । अब, इस गोलाकार का जो अवशिष्ट उत्तर गोलार्ध है उस में पाणिनीयतन्त्र फिर से गतिशील हो कर कृत्-तद्धित-समासादि वृत्तिजन्य पदों का निर्माण करता है ! 2.0 तन्त्र के उत्तर गोलार्ध में 'पदोद्देश्यक विधिओं' का प्रदर्शन : हमारे विचार से पाणिनीय व्याकरण-तन्त्र चक्रवत् घूमता हुआ एक तन्त्र है । जिसके परिणाम स्वरूप दो तरह की प्रवृत्तियाँ निरन्तर होती रहती हैं । पूर्व गोलार्ध में, जो विधियाँ होती हैं वे 'पदत्वसंपादक-विधियाँ' हैं। और उत्तर गोलार्ध में, जो विधियाँ होंगी वे 'पदोद्देश्यकविधियाँ' कहलायेंगी । जैसे कि - (१) पूर्व गोलार्ध में, तन्त्र के आरम्भबिन्दु पर रखे गये 1. 'अर्थ' से शुरू होकर क्रमशः 2. विभिन्न कारकसंज्ञायें, 3. अलग-अलग विभक्ति प्रत्ययों का विधान, (आवश्यक स्थान्यादेश का कार्य, प्राप्त ध्वनिविकार हो जाने के बाद प्रकृति + प्रत्यय का संयोजन करने से), 4. विभिन्न "सुबन्तपद" एवं (एक) “तिङन्त पद" की रूपसिद्धि पूर्ण होगी । इसी प्रक्रिया को पदत्व-संपादक-विधियाँ कही जायेंगी। 5. इसके बाद दो पदों के बीच में भी जो आवश्यक सन्धिकार्य प्राप्त होंगे उन्हें भी निपटाया जायेगा। 6. जिसके फलस्वरूप अन्त में लोक में प्रयोगार्ह हो ऐसा वाक्य निष्पन्न हो कर बाहर निकलता है। हालांकि यह ध्यान में रखना बहुत जरूरी है कि - पाणिनि के तन्त्र ने यहाँ जो सुबन्त एवं तिङन्त नामक 'पद' जन्माये हैं, वे परस्परान्वित ही होते हैं । (उनकी परस्पर निरपेक्ष या स्वतन्त्र रूप से सिद्धि हुई ही नहीं है ।) दूसरे शब्दों में कहें तो सभी पदत्व सम्पादक विधियोंने मिलकर जो उत्पन्न किया है, वह तो नि:शंक एक "वाक्य" ही है । यह 'वाक्य' लोक में सर्वथा प्रयोगार्ह होते हैं । यदि आप चाहें तो वाग्व्यवहार में उसका प्रयोग कर सकते हैं । अन्यथा - (२) उत्तर गोलार्ध में, उसी वाक्य का 1. एक “विग्रह वाक्य" के रूप में ग्रहण करके, 2. उनमें आये हुए 'पदों' पर रूपान्तरण के नियम (Trasformational Grammar के सूत्र) लगा कर, 3. “कृदन्त', 'तद्धितान्त' या 'समासादि' रूप वृत्तिजन्य नये शब्द भी बना सकते हैं ! और वे भी, 4. कृत्-तद्धित-समासाश्च । १-२-४६ जैसे प्रातिपदिकसंज्ञा विधायक सूत्र से, 'प्रातिपदिक' कहलाते हैं । जिनके फलस्वरूप ऐसे समासादिरूप प्रातिपदिकों 4. सुपो धातुप्रातिपदिकयोः । २-४-७१, कर्मण्यण् । ३-२-१, तद्धितेष्वचामादेः । ७-२ ११७, उपपदमतिङ् । २-२-१९, समासान्तविधियाँ, एवं टिड्ढाणञ्। ४-१-३५ इत्यादि जैसे स्त्रीप्रत्यय विधायक सूत्र ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002635
Book TitlePaniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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