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________________ [10] पाणिनि के तन्त्र में लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः । ३-४-६९ सूत्र पूछता है धातु से उत्तर में आये हुए (कालवाचक) 'लू' कार को कर्तृकारक का वाचक बनाना है, या कर्मकारक (अथवा भाव) का वाचक ? इस सन्दर्भ में भाषक की विवक्षा (Speaker's कि desire) क्या है ? यदि वह चाहता है कि है (= विवक्षित है)"; तो ( ( हन्) से परे ९ प्रत्यय आदेश के "इस ल् कार से कर्तृकारक रूप अर्थ वाच्य (आये हुए ल् कार के स्थान में) परस्मैपद संज्ञक - रूप में प्रवृत्त होने को तैयार हैं । यथा √हन् + (सकर्मक धातु) √ हन् Jain Education International . — लू (अ टू) कर्तृकारक कर्मकारक V X + ल् स्थानि (प्रथमपुरुष) तिप् (मध्यमपुरुष) सिप् (उत्तमपुरुष) मिप् - - (अ तस् थस् वस् - ( परस्मैपद संज्ञक ९ प्रत्यय) झि ― थ — ← विवक्षा से तय होता है कि यह ल् कार 'कर्ता' का बोध करायेगा । For Private & Personal Use Only मस् } अब एक स्थानी के स्थान पर अनेक (९) आदेश प्रवृत्त होने पर, यह तिङन्त पद की रूप साधनिका तब तक स्थगित हो जायेगी, जब तक हम 'लू' वाच्य कर्तृकारक क्या युष्मद् (सर्वनाम) से वाच्य है; या अस्मद् (सर्वनाम) से वाच्य है, अथवा तो तदुभयभिन्न तद्, यद् इदम् इत्यादि (सर्वनाम) से वाच्य है ? इसका निर्णय नहीं बता पायेगें। क्योंकि, 'लू' के स्थान पर इन ८ तिबादि प्रत्ययों की युगपत् प्रवृत्ति तो सम्भव ही नहीं है । अतः इन में से किसी एक प्रत्यय की ही पसंदगी करनी पड़ेगी । इस के लिए पाणिनि ने तीन सूत्र दिये हैं (क) युष्मद्युपपदे समानाधिकरणे स्थानिन्यपि मध्यमः । १-४-१०५ : आदेश इस सूत्र के अनुसार तिङ् प्रत्यय से वाच्य जो कारक ( प्रकृत उदाहरण में कर्तृकारक) हो वह कारक का वाचक 'युष्मद्' शब्द (√हन् धातु के ) उपपद में हो (या न. भी www.jainelibrary.org
SR No.002635
Book TitlePaniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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