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[9] भी राम, बाण, रावण इत्यादि पदार्थ का सबसे पहले हनन आदि क्रियाविशेष से संलग्न (अन्वित = भागग्रहीता) होना अनिवार्य है । अर्थात् 'कारक' होना अतीव आवश्यक है। तभी राम, बाण, रावणादि पदार्थ 'हनन' जैसी किसी क्रियाविशेष से पौर्वापर्यभाव से संलग्न होंगे और तभी उनकी 'कर्तृ', 'करण' या 'कर्म' (आदि) कारकविशेष संज्ञा हो सकेगी और फिर कर्तृकरणयोस्तृतीया । २-३-१८, कर्मणि द्वितीया । २-३-२ जैसे विभक्तिविधायक सूत्र प्रवृत्त हो सकेंगे । (करणकारकसंज्ञक) 'बाण' (प्रकृति) + 'टा' (करणवाचक प्रत्यय); अथवा, कर्मकारकसंज्ञक 'रावण' (प्रकृति) + अम् (कर्मवाचक प्रत्यय ।) इस के बाद रूपसाधनिका आगे बढ़ती है; जिसके फलस्वरूप 'बाणेन' 'रावणम्' जैसे सुबन्त–पद सिद्ध होते हैं ।
वाक्यनिष्पत्ति के एक छोर पर सुबन्त–पद होते हैं, तो दूसरे छोर पर तिङन्त-पद होता है। फिर भी दोनों प्रकार के पद हमेशा परस्परान्वित होते हैं; परस्पर सापेक्ष होते हैं । अर्थात् तिङन्त क्रियापद से निरपेक्ष रहकर किसी भी सुबन्त पद की रूपसिद्धि सम्भव नहीं है ।
और सुबन्त (प्रथमान्त) पद से निरपेक्ष रहकर किसी भी तिङन्त पद की रूपसिद्धि नहीं हो सकती । इस विचार को एक उदाहरण से समझना चाहिए :
"राम रावण को बाण से मारता है" इस वाक्य को संस्कृत में परिवर्तित करने के लिए; मान लिया जाय कि हम पहले अकेले "मारता है (हनन करता है)" - जैसे केवल क्रियापद की सिद्धि करना चाहते है ।
मारता है (क्रियारूपी अर्थ) + वर्तमान काल (रूपी अर्थ)
Vहन्
+ लट् १. वर्तमाने लट् । ३-२-१२३ सूत्र से विहित ल् (अ-ट्, इत्संज्ञक, लोप)
हन्
+
यहाँ पर, किसी भी 'ल'कार के स्थान में तिबादि १८ (९ परस्मैपदसंज्ञक + ९ आत्मनेपद संज्ञक) प्रत्यय आदेश के रूप में लाने से पहले, एक अन्य विचार करना अतीव आवश्यक है। 3. यद्यपि इन विभक्तिविधायक सूत्रों को प्रवृत्त करने से पहले, "अनभिहिते" (२-३-१)
सूत्रोक्त शर्त का पालन हो रहा है कि नहीं यह देखना भी जरूरी है । परन्तु उसकी चर्चा आगे के परिच्छेद में की जायेगी ।
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